श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इस प्रकार उसकी ‘मैं’ तथा ‘वह’ वाली भावना विनष्ट हो जाती है और वह मेरे स्वरूप में समा जाता है। जब कपूर जलने लगता है, तब तो उसे अग्नि का नाम देना उचित होता है और जिस समय कपूर और अग्नि-इन दोनों का भी लोप हो जाता है, उस समय जैसे एकमात्र आकाश तत्त्व ही अवशिष्ट रह जाता है अथवा जैसे एक में से एक घटाने पर सिर्फ शून्य ही शेष रह जाता है ठीक वैसे ही ‘है’ तथा ‘नहीं है’ अथवा ‘भाव’ तथा ‘अभाव’-इन दोनों को पृथक् कर देने पर जो कुछ अवशिष्ट रहता है, वही मैं हूँ। उस दशा में ‘ब्रह्म’, ‘आत्मा’ तथा ‘ईश्वर’ इत्यादि शब्दों में भी उस स्वानन्द में विघ्न पड़ता है और ‘न’ यानी कुछ नहीं कहने की भी वहाँ जगह शेष नहीं रह जाती। उस समय बिना कुछ मुँह से उच्चारण किये हुए ही, खूब मन भरकर ‘न’ कहा जाता है तथा ज्ञान-अज्ञान की कोई जानकारी न होने पर भी वह एकदम ठीक तरह से जाना जाता है। वहाँ बोध को बोध से ही समझाया जाता है, आनन्द का आलिंगन आनन्द से ही किया जाता है और सुख का भोग सुख से ही किया जाता है। उस दशा में लाभ को ही लाभ मिलता है, प्रभा ही प्रभा का आलिंगन करती है और विस्मय मानो विस्मय में ही डूब जाता है। उस स्थिति में शम को भी एकदम शान्ति मिलती है, विश्राम को विश्रान्ति होती है और अनुभव पर अनुभव का भूत सवार हो जाता है। किंबहुना, उस पुरुष को क्रमयोग की सुन्दर बेल लगाने का यही आत्मस्वरूप वाला निर्दोष फल प्राप्त होता है। हे किरीटी! मैं ही इस क्रमयोगरूपी सम्राट के मुकुट पर चैतन्यरूपी रत्न होता हूँ और इसके एवज में वह मेरा मुकुटमणि होता है अथवा मानो मोक्ष ही इस क्रमयोगरूपी मन्दिर का कलश है और उस कलश के ऊपर रहने वाला आकाश का विस्तार वह क्रमयोगी होता है अथवा यह समझना चाहिये कि संसाररूपी अरण्य में क्रमयोग ही एक सुन्दर और सरल मार्ग है और वह सीधे मेरे ऐक्यरूपी गाँव तक आ पहुँचता है अथवा ज्ञानभक्तिरूपी जल के साथ क्रमयोगरूपी प्रवाह-मार्ग से वह वेगपूर्वक चलकर ‘मैं’ नामक आत्मानन्दरूपी सागर में आ मिलता है। |
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