ज्ञानेश्वरी पृ. 786

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

ऐसी दशा में हे पाण्डुसुत! कर्म तथा कर्ता-इन दोनों के ही नामों का लोप हो जाता है और मुझे आत्मस्वरूप में देखकर वह स्वयं ही ‘मैं’ हो जाता है। दर्पण को यदि दर्पण ही देखे तो वह कोई देखना नहीं कहा जा सकता। स्वर्ण का ही मुलम्मा कभी स्वर्ण पर नहीं चढ़ सकता अथवा दीपक को कभी दीपक से प्रकाश नहीं दिखलाया जा सकता। इसी प्रकार ‘मैं’ जो कर्म हूँ वही कर्म यदि ‘मैं’ करे, तो उस दशा में वह किसी प्रकार कर्म हो ही नहीं सकता। जिस दशा में कर्म तो सम्पन्न किये जाते हों, पर यह न कहा जा सकता हो कि वह कर्म सम्पन्न करता है तब उसका कर्म करना न करने के ही बराबर होता है। सम्पूर्ण कर्मों के मद्रूप हो जाने के कारण उसका फल कुछ न करना ही होता है और वास्तव में यही मेरी सच्ची भक्ति है।

अत: हे कपिध्वज! कर्म करने के मार्ग से भी कर्म न करना ही घटित होता है और वह मेरी अर्चा इसी महापूजा से करता है। आशय यह कि उसका बोलना ही मेरा स्तोत्र होता है, उसका देखना ही मेरा दर्शन होता है और उसका चलना ही मेरी अद्वैतता का ही गमन होता है। वह जो कुछ करेगा, वह सारी-की-सारी चीजें मेरी ही पूजा होगी; जिस किसी भी बात का विचार वह अपने मन में करेगा, वह सब मेरा ही जप होगा; और हे सुभट (अर्जुन)! उसका स्वस्थ रहना ही मेरी समाधि है। जैसे कंगन को अनवरत स्वर्ण की ही संगति में रहना पड़ता है, वैसे ही वह भक्तियोग से अनवरत अद्वैतरूप में मुझमें रहता है। जल में तरंगे, कपूर में सुगन्ध तथा रत्नों में तेज बिना किसी द्वैतभाव के ही रहता है। पट तन्तुओं के साथ तथा घट मिट्टी के साथ सदा एक में मिला रहता है। ठीक इसी प्रकार वह भक्त भी मेरे साथ समरस होकर रहता है। मेरी इस अनन्य भक्ति के कारण वह दृश्य पदार्थ मात्र में मुझ द्रष्टा को ही आत्मभाव से देखता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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