श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे भोजन ग्रहण करते समय प्रत्येक ग्रास के साथ भूख उत्तरोत्तर कम होती जाती है और पूर्ण तृप्ति होने पर सारी-की-सारी भूख मिट जाती है अथवा मनुष्य रास्ते पर ज्यों-ज्यों चलता जाता है, त्यों-त्यों रास्ते की दूरी कम होती जाती है और अन्त में मंजिल पहुँचने पर रास्ता एकदम समाप्त हो जाता है अथवा निद्रा का त्यों-त्यों नाश होता जाता है, ज्यों-ज्यों जाग्रत्-अवस्था का उदय होता है और पूर्णरूप से जाग जाने पर निद्रा एकदम खत्म हो जाती है; जैसे चन्द्रकलाएँ पूर्णिमा के दिन पूर्ण हो जाने पर उसके बिम्ब की वृद्धि का अन्त हो जाता है और उसी दिन के शुक्ल पक्ष का भी अवसान हो जाता है, ठीक वैसे ही जब जानने के समस्त विषयों का अस्तित्व मिटाकर जानने वाला अपने साथ ज्ञान को लेकर मेरे स्वरूप में समा जाता है, उसी समय अज्ञान की पूर्णतया इति श्री हो जाती है। फिर जैसे कल्प के अन्त के समय नदी तथा समुद्र इत्यादि के आकार नष्ट हो जाते हैं और समस्त ब्रह्माण्ड जलमग्न हो जाता है, जैसे घट इत्यादि आकारों के विनष्ट हो जाने पर सर्वत्र समानरूप से भेदहीन आकाश ही अवशिष्ट रह जाता है अथवा जैसे काष्ठ के भस्म हो जाने पर एकमात्र आग ही अवशिष्ट रहती है, जैसे स्वर्णकार की घरिया में पड़ने पर तथा आभूषण का आकार विनष्ट हो जाने पर स्वर्ण के लिये नाम-रूप इत्यादि वाला भेदभाव प्रयुक्त नहीं हो सकता अथवा यदि और उदाहरण प्रस्तुत करना हो तो जैसे जाग उठने पर तथा स्वप्न के न रह जाने पर एकमात्र हमीं-हम शेष रह जाते हैं, ठीक वैसे ही वह मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं देखता अथवा पहचानता; यहाँ तक कि स्वयं को भी वह न देखता ही है और न पहचानता ही है। इस प्रकार उसके द्वारा मेरी चौथी भक्ति होती है। |
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