श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इस विजय-अभियान में जो दोषरूपी वैरी बाधक होते हैं और जिन्हें यह योद्धा परास्त करता है, उनमें से प्रमुख वैरी देह का ‘अहंकार’ है, यह अहंकार ऐसा वैरी है जो न तो आदमी को कालकवलित हो जाने पर ही छोड़ता है और न जन्म धारण करने पर ही चैन से जीने देता है तथा हड्डियों के इस ढाँचे में ही जीव को उलझाकर उसे क्लेश देता रहता है। यही देहरूपी दुर्ग ही उस अहंकार का मुख्य आधार है और उसके इसी दुर्ग पर आक्रमण करके वह योद्धा उसे मटियामेट करता है, उसका दूसरा वैरी ‘बल’ होता है और उसके भी वह प्राण ले लेता है। विषयों का नामोल्लेख होते ही यह वैरी चौगुने से भी अधिक आवेश से उठ खड़ा होता है और इसके कारण मानों सारे संसार को निगलने के लिये मृत्यु दौड़कर आ पहुँचती है। इसे विषयरूपी विष का गहरा दह (कुण्ड) ही जानना चाहिये। समस्त दोषों का यही अधिपति है, परन्तु वह ध्यान-खड्ग का वार भला किस प्रकार सहन कर सकता है? जो-जो विषय मधुर तथा सुखकर जान पड़ते हैं, उन्हीं का नकाब ओढ़कर जो मनुष्य के देह पर आक्रमण करता है, जो मनुष्य को बहकाकर सन्मार्ग से दूर ले जाता है तथा प्रवासी जीवों को अधर्मरूपी अरण्य में ले जाकर नरकरूपी व्याघ्रों के मुख में डाल देता है, वह विश्वसनीय बनकर घात करने वाला ‘दर्प’ नामक वैरी है, जिसका नाश यह योद्धा ही करता है। |
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