ज्ञानेश्वरी पृ. 773

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे धनंजय! मलद्वार तथा मूत्रद्वार के बीच वाली सीवन को एड़ी से भली-भाँति दबाकर वह मूलबन्ध बाँधता है। वह अधोभाग को संकुचित करके तथा मल स्थान के मूलबन्ध नाभिचक्र के उड्डियान-बन्ध तथा कण्ठ स्थान के जालन्धरबन्ध-इन तीनों की साधना करके भिन्न-भिन्न वायुओं को एक समान कर लेता है। फिर कुंडलिनी को जागृत कर तथा मध्यमा यानी सुषुम्ना का मार्ग खुला और विस्तृत करके तथा आधारचक्र से अग्निचक्रपर्यन्त समस्त चक्रों को भेदकर अन्त वाले सातवें चक्र का भेदन करता है जिससे ब्रह्मरन्ध्र के सहस्रदल कमल से अमृत-वृष्टि होने लगती है और उसका प्रवाह मल स्थान के मूल-बन्ध तक पहुँचा देता है। फिर ब्रह्मरन्ध्ररूपी कैलाशगिरि पर नृत्य करने वाले चैतन्यरूपी भैरव के खप्पर में मन तथा प्राणवायु की खिचड़ी भर देता है और इस प्रकार सिद्ध किये हुए योग की बलिष्ठ सेना अपने आगे की ओर खड़ा कर तथा पीछे की ओर अपने ध्यान का दुर्ग खूब मजबूत करता है। ध्यान तथा योग-इन दोनों को आत्मतत्त्वरूपी ज्ञान में निर्विघ्नतापूर्वक स्थिर रखने के लिये वह पहले से ही वैराग्य-सदृश मित्र के संग मित्रता स्थापित कर लेता है।

ऊपर जितने स्थान बताये गये हैं, उन स्थानों को पार करने में यह वैराग्य-सरीखा मित्र उसका बहुत सहयोग करता है तथा बराबर उसके साथ ही रहता है। जितनी जगह तक दृष्टि की पहुँच है, उतनी जगह तक यदि दृष्टि तथा दीपक का वियोग न हो तो फिर इष्ट वस्तु के दिखायी देने में भला किस चीज का विलम्ब हो सकता है? ठीक इसी प्रकार जिस समय जीव को मुमुक्षता मिल जाती है, उस समय उसकी अन्तःकरण-वृत्ति ब्रह्मतत्त्व में समा जाती है और यदि उस स्थिति तक उसका वैराग्य कायम रहे, तो फिर ब्रह्म के संग होने वाली उसकी एकता कहाँ से भंग हो सकती है? आशय यह है कि जिस सौभाग्यशाली व्यक्ति से वैराग्युक्त योगाभ्यास सध जाता है, वही व्यक्ति आत्मप्राप्ति के योग्य हो जाता है। वैराग्यरूपी अभेद्य कवच धारण कर वह राजयोगरूपी अश्वपर सवारी करता है तथा मार्ग में जो छोटे-बड़े विघ्न उसे दृष्टिगत होते हैं, उनके टुकड़े करने वाले ध्यानरूपी तीक्ष्ण धार वाली तलवार वह अपने विवेकरूपी मुट्ठी में कसकर पकड़ लेता है। इस प्रकार जैसे अँधेरे को चीरता हुआ सूर्य आगे बढ़ता जाता है, ठीक वैसे ही वह संसाररूपी युद्ध-क्षेत्र में आगे बढ़ता है और अन्त में मोक्षरूपी विजयलक्ष्मी उसके गले में जयमाल डालती है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1022-1049)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः