श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
यदि उर्वरा भूमि में उत्तम किस्म के बीज बोये जायँ तो निश्चय ही अच्छी फसल पैदा होती है; पर वह भी उचित समय आने पर। यदि रास्ता सुगम और सहचर अच्छा मिल जाय, तो हम आसानी से ही अपने इष्ट स्थान तक पहुँच जाते हैं; पर इन दोनों चीजों के अलावा इष्ट स्थान तक पहुँचने के लिये समय की भी आवश्यकता होती ही है। ठीक इसी प्रकार जब चित्त में पूर्णरूप से वैराग्य प्रवेश कर जाता है, तिस पर सद्गुरु के भी दर्शन होते हैं और अन्तःकरण में आत्म-अनात्मरूपी विवेक का अंकुर भी बहुत जोरों से फूटता है और इस विवेक के कारण जब ऐसा निश्चित अनुभव हो जाता है कि अगर कोई सत्य वस्तु है तो वह एकमात्र ब्रह्म ही है और इसके सिवा जो कुछ है, वह सब मायाजनित मोहजाल है, तभी वह पुरुष कालक्रम से उन ब्रह्मतत्त्व में समरस होकर ब्रह्मत्व वाली स्थिति को पहुँचता है। जो ब्रह्मतत्त्व सर्वव्यापी और सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें मोक्ष का कोई कार्य ही नहीं रह जाता है, जो ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान-इन तीनों को भी निगल जाता है जो ज्ञान की सारी क्रियाएँ भी अन्त में बन्द कर देता है, जिसमें ऐक्य की एकता भी नहीं रहती है, जिसमें आनन्दकण भी विलीन हो जाता है और जो अन्ततः एक ऐसा शून्यस्वरूप शेष रहता है, जो कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार भूखे व्यक्ति के सम्मुख षड् रस व्यंजन परोसने पर हरेक ग्रास में उसका समाधान होता है, ठीक उसी प्रकार वैराग्य के सहयोग से ज्यों ही विवेकरूपी दीपक प्रज्वलित होता है, त्यों ही आत्मस्वरूपरूपी गुप्त भण्डार उसके लिये खुल जाता है। फिर भी जो मनुष्य इतनी अत्यधिक योग्यता प्राप्त कर लेता है कि आत्मस्वरूप के वैभव का प्रत्यक्ष उपभोग कर सके, वह जिस क्रम से उस ब्रह्मप्राप्ति की योग्यता तक पहुँचता है, उसके लक्षण के सम्बन्ध में अब मैं तुमको स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (985-1010)
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