ज्ञानेश्वरी पृ. 764

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ॥48॥

सभी कर्मों को करने में यदि कष्ट सहना ही पड़ता है, तो फिर यदि स्वधर्म के पालन में भी कष्ट होता हो तो इसके लिये स्वधर्म को दोष क्यों दिया जाय? यदि सीधे रास्ते से मनुष्य चले तो भी पैरों को श्रम करना पड़ता है और यदि टेढ़े-मेढ़े वन-मार्ग से चले तो भी परिश्रम करना ही पड़ता है। चाहे कंकड़-पत्थरों की गठरी बाँधकर उठाओ और चाहे भोजन-सामग्री की गठरी उठाओ, बोझ तो दोनों का ही होता है; पर जो भार ढोने से यात्रा में थकान दूर करने में सहायता मिले, वही भार ढोना उचित होता है। और नहीं तो चाहे अनाज हो और चाहे भूसा हो-इन दोनों को ही कूटने में परिश्रम एक समान ही करना पड़ता है। चाहे श्वान का मांस पकाया जाय और चाहे हविष्यान्न पकाया जाय-इन दोनों में पकाने की क्रिया एक समान ही होती है। हे सुविज्ञ! चाहे दधि का मंथन किया जाय और चाहे जल का मंथन किया जाय-इन दोनों में मंथन की क्रिया एक समान ही होती है। ठीक इसी प्रकार कोल्हू में बालू डालकर पेरना और तिल डालकर पेरना-ये दोनों क्रियाएँ एक ही हैं। हे धनंजय! चाहे हवन हेतु आग जलायी जाय और चाहे किसी अन्य काम के लिये आग जलायी जाय, पर धूआँ सहने का कष्ट इन दोनों क्रियाओं में एक समान ही होता है।

यदि धर्मपत्नी और वेश्या-इन दोनों का पालन करने में धन का खर्च एक समान ही होता हो तो फिर वेश्या को रखकर अपने ऊपर कलंक क्यों किया जाय? यदि शत्रु को पीठ दिखाकर पीठ पर लगे हुए चोटों से भी मृत्यु अवश्यम्भावी हो, तो फिर शत्रु का डटकर मुकाबला करने तथा चोट खाने में और कौन-सी विशेष हानि हो सकती है? यदि किसी बुरे कुल में विवाहित स्त्री (प्रताड़ित होने पर) किसी दूसरे के घर में जाकर रहे और वहाँ भी उसे डंडों की ही मार सहनी पड़े, तो फिर यदि घर में स्वयं उसका पति मारता हो, तो सिर्फ इस कारण से पति का परित्याग कर घर से बाहर जाने में उसे कौन-सा लाभ हो सकता है? ठीक इसी प्रकार बिना कष्ट सहे यदि अपना कार्य भी सिद्ध नहीं होता, तो फिर हम किस मुँह से यह कह सकते हैं कि विहित कर्म का आचरण करना अत्यन्त कठिन है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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