ज्ञानेश्वरी पृ. 763

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥47॥

हे पार्थ! यदि स्वधर्म आचरण करने में कठिन भी हो, तो भी इस बात की ओर ध्यान देना अत्यावश्यक है कि उसके परिणामस्वरूप हमें कैसा अच्छा फल प्राप्त होगा। हे धनंजय! यदि अपने देह को रोगमुक्त करने हेतु सिर्फ कड़वी नीम ही दवा के रूप में हो तो उसके कड़वेपन से उकताने से किस प्रकार काम चलेगा? यदि कदली-वृक्ष को फल लगने से पहले देखा जाय और उस पर उस समय फल न दृष्टिगत हो तब यदि हताश होकर वह कदली-वृक्ष ही काट डाला जाय तो इस कृत्य से भला कौन-सा अच्छा फल मिल सकता है? ठीक इसी प्रकार यदि हम स्वधर्म का सिर्फ इसलिये त्याग कर दें कि उसका आचरण करना अत्यन्त दुष्कर होता है, तो फिर क्या हम कभी मोक्ष-सुख प्राप्त कर सकेंगे?

यदि हमारी माता कुछ कुबड़ी हो तो भी उसके जिस प्रेम से हम जीवन धारण करते हैं, वह प्रेम कभी कुबड़ा नहीं होता। अन्य स्त्रियाँ चाहे रम्भा से भी अधिक रूपवती क्यों न हों, तो भी मातृप्रेम के अभाव में बालक के लिये वे किस काम की? घृत में जल की अपेक्षा अत्यधिक गुण विद्यमान होते हैं, पर फिर भी क्या मछलियाँ कभी घृत में रह सकती हैं? जो चीज सम्पूर्ण जगत् के लिये विष होती है वही चीज उन विष-कीड़ों के लिये अमृत होती है और सम्पूर्ण जगत् को मीठा लगने वाला गुड़ विष-कीड़ों के लिये जानलेवा होता है। इसीलिये जिसके जो विहित कर्म हैं और जिनको करने से संसार का बन्धन छूटता है वे कर्म यद्यपि करने में दुष्कर भी हों तो भी उन कर्मों को अवश्य करना चाहिये। यदि दूसरों के व्यवहार अच्छे जान पड़ें और इसीलिये हम भी वही आचार करने लगें तो ऐसा करना ठीक वैसे ही हानिकारक है, जैसे कोई व्यक्ति पैरों के बदले सिर से चलने का प्रयत्न करने लगे। इसीलिये हमारे जन्म तथा स्वभाव के अनुसार जो कर्म अपने खाते में हों, उन्हीं कर्मों को जो व्यक्ति करता है उसके विषय में यह जान लेना चाहिये कि उसने कर्मों का बन्धन तोड़ डाला और हे पाण्डव! क्या इसीलिये यह जरूरी नहीं हो जाता कि हमें स्वधर्म का पालन तथा परधर्म का परित्याग कर देना चाहिये? जरा तुम्हीं विचार करो कि जब तक आत्मदर्शन न हो, तब तक कर्म करना क्या कभी बन्द हो सकता है? और चाहे कोई कर्म क्यों न किया जाय, पर उसे करने का क्लेश सबसे पहले रखा ही रहता है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (923-935)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः