ज्ञानेश्वरी पृ. 762

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥46॥

अत: यह सिर्फ विहित कर्मों को करना ही नहीं है, अपितु इसे ईश्वर की इच्छा का पालन ही जानना चाहिये। जिससे इस जीवसृष्टि ने आकार धारण किया है, जो अविद्या (माया) रूपी धज्जियाँ जोड़कर यह जीवरूपी गुड़िया बनाता है और त्रिगुणों की बटी हुई अहंकाररूपी रज्जु से उसे नचाता है, जिसने यह समस्त जगत् अपने प्रकाश से दीपज्योति की तरह बाह्याभ्यन्तर प्रकाशित कर रखा है, यदि उस सर्वान्तर्यामी ईश्वर की विहित कर्माचरणरूपी पुष्पों से पूजा की जाय तो उसे अपार सन्तोष होता है। जिस समय इस प्रकार की पूजा से वह ईश्वर सन्तुष्ट हो जाता है, उस समय वह उस विहित कर्मों का आचरण करने वाले भक्त को वैराग्य सिद्धि का प्रसाद प्रदान करता है, फिर जब उस वैराग्य की दशा में एकमात्र उस एक ईश्वर की ही धुन लग जाती है, तब जीव को यह समस्त जगत् वमन किये हुए अन्न की भाँति घृणित जान पड़ता है। प्राणप्रिय पति से वियुक्त होने वाली स्त्री का जीवन जैसे पति की चिन्ता के कारण निरर्थक हो जाता है, ठीक वैसे ही उस भक्त को भी सुख के समस्त विषय दुःखद ही जान पड़ते हैं। इस परोक्ष ज्ञान का इतना अधिक माहात्म्य है कि ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होने के पूर्व ही एकमात्र उसके ध्यान से ही जीव में तन्मयता आ जाती है। इसीलिये जो व्यक्ति मोक्ष पाने की कामना तथा प्रयत्न करता हो, उसे स्वधर्म का आचरण आस्थापूर्वक करना चाहिये।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (914-922)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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