श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे चारों पुरुषार्थों में भक्ति श्रेष्ठ है, ठीक वैसे ही उपर्युक्त चारों गुणों में यह गुण भी श्रेष्ठ है। जैसे अत्यधिक पुष्प और फल इत्यादि आने पर वृक्ष की शाखाएँ नीचे की ओर झुक जाती हैं अथवा जैसे पद्मवन अपनी सुगन्ध चतुर्दिक् फैला देता है अथवा जैसे चन्द्रमा की चाँदनी जो चाहे तथा जितनी मात्रा में चाहे उतनी मात्रा में ले सकता है, ठीक वैसे ही लेने वाले को उसकी इच्छानुसार दान देने को ‘दान’ कहते हैं और वह क्षात्रवृत्ति इस छठे गुणरत्न से भी भूषित रहती है। इसी प्रकार स्वयं की आज्ञा पूरे जगत में मान्य कराने तथा अपने अवयवों का पोषण करके उन्हें अपने काम के अनुकूल बनाया जाता है, ठीक वैसे ही प्रजा का पालन करके और उनके सन्तोष के द्वारा जगत् का उपभोग करना ईश्वरभाव कहलाता है। यह ईश्वरभाव उस क्षात्रवृत्ति का सातवाँ गुण है, जो समस्त सामर्थ्यों का आश्रय-स्थान तथा गुणों का सम्राट् है। इन शौर्य इत्यादि सप्तगुणों से जो वृत्ति ठीक वैसे ही पवित्र होती है, जैसे सप्तर्षियों से आकाश अलंकृत होता है, वही स्वाभाविक क्षात्रवृत्ति होती है, यही क्षत्रियों के वास्तविक सहज गुण हैं। इन समस्त गुणों से युक्त जो क्षत्रिय होता है, वह साधारण मनुष्य नहीं होता, अपितु सत्त्वरूपी स्वर्ण का मेरुगिरि ही होता है और यही कारण है कि वह सप्तगुणों के स्वर्ग को सँभालकर रखता है अथवा यह समझना चाहिये कि इन सप्तगुणों से आवृत यह क्रिया-वृत्ति नहीं है, बल्कि सप्तसमुद्रों से आवृत पृथ्वी ही है और वह वीर शिरोमणि उसका उपभोग करता है अथवा इन सप्तगुणों के प्रवाहों से यह क्रियारूपी गंगा इस क्षत्रियरूपी महासागर के अंगों पर मानो विलास करती है, पर विषय-विस्तार बहुत हो चुका है। आशय यह कि शौर्य इत्यादि गुणों से अंकित जो कर्म होते हैं वही वास्तव में क्षत्रिय-जाति के स्वाभाविक कर्म हैं। हे सुविज्ञ! अब मैं वैश्य-जाति के उचित कर्म कौन-से हैं इसके सम्बन्ध में बतलाता हूँ, सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (856-879)
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