श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे सूर्य अपना तेज प्रकट करने के समय किसी के सहयोग की अपेक्षा नहीं करता अथवा सिंह को शिकार करने में किसी सहायक की जरूरत नहीं होती, ठीक वैसे ही स्वयं अपने ही साहस से और बिना किसी के सहयोग के पराक्रम कर दिखलाने का ‘शौर्य’ नाम का जो गुण है, वह गुण जिस कर्मवृत्ति का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ गुण है, वही स्वाभाविक क्षात्रवृत्ति होती है। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष करोड़ों नक्षत्र लुप्त हो जाते हैं, पर यदि सारे-के-सारे नक्षत्र चन्द्रमा के साथ इकट्ठे हों तो भी उनके द्वारा सूर्य का कभी लोप नहीं होता, ठीक वैसे ही जिस अलौकिक शक्ति के कारण मनुष्य अपनी तेजस्वी गुणों से समस्त जगत् को आश्चर्यचकित कर देता है, पर स्वयं कभी किसी चीज से भ्रान्त नहीं होता, उसी बल का नाम ‘तेज’ है। यही दूसरा तेज नामक गुण है जो उस वृत्ति में दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार उसमें ‘धैर्य’ नाम का तीसरा गुण भी होता है। चाहे आकाश ही टूटकर जमीन पर क्यों न गिर जाय, पर फिर भी जिस धैर्य गुण के कारण बुद्धि की आँखें भय से कभी नहीं झपकतीं और चित्त कभी चंचल नहीं होता, वह धैर्यगुण उस वृत्ति में दृष्टिगत होता है। चाहे जल कितना ही अपार क्यों न हो, पर फिर भी जैसे उसे दबोचकर कमल के पत्ते फैलते हैं और चाहे कोई व्यक्ति कितनी ही ऊँचाई पर क्यों न जा पहुँचे तो भी जैसे आकाश सदा उसके ऊपर ही रहता है; ठीक वैसे ही चाहे कैसा ही प्रसंग क्यों न आ पड़े, तो भी हे पार्थ! इष्ट फल प्रदान करने वाले कार्य अत्यन्त दक्षतापूर्वक तथा अचूक प्रवेश करने को ‘दक्षत्व’ नाम से सम्बोधित करते हैं, और यह दक्षत्व नाम का जो चौथा गुण है, वह भी उस वृत्ति में पूर्णरूप से दृष्टिगोचर होता है। खूब डटकर युद्ध करना, जैसे सूर्यमुखी का पुष्प निरन्तर सूर्य की ओर ही रहता है, ठीक वैसे ही शत्रु के समक्ष साहसपूर्वक खड़े रहना और जैसे गर्भिणी महिला सब तरक के प्रयत्न करके अपने पति की शय्या पर पीठ नहीं लगने देती और उस शय्या से अपनी पीठ का लगना बचाती है, ठीक वैसे ही युद्धभूमि में शत्रु का सामना होने पर उसे पीठ न दिखलाना उस क्षात्रवृत्ति का पाँचवाँ गुण है; हे गुणशिरोमणि धनंजय! इस बात को तुम अच्छी तरह अपने ध्यान में रखो। |
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