ज्ञानेश्वरी पृ. 755

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्माकर्म स्वभावजम् ॥42॥

इस प्रकार की शान्त स्थिति जो बुद्धि की होती है कि वह सारे इन्द्रियों को अपने हाथ में लेकर एकान्त भाव से धर्मपत्नी की तरह आत्मतत्त्व के साथ मिली रहती है, उसी को ‘शम’ कहते हैं। इसी शम से अच्छे कर्मों का आरम्भ होता है। इस प्रकार के कर्मों में ‘दम’ नाम का एक दूसरा गुण उस शम का सहयोगी होता है जिसके कारण स्वधर्म के आचरणपूर्वक समस्त व्यवहार होते हैं। ‘तप’ नाम का एक तीसरा गुण भी ऐसे कर्मों में दृष्टिगत होता है जिसके द्वारा चित्त में ईश्वरविषयक श्रद्धा ठीक वैसे ही अनवरत जाग्रत् रहती है, जैसे छठीवाली रात को इस बात का सम्यक् ध्यान रखा जाता है कि प्रसविणी के कक्ष का दीप न बुझने पावे। इसी प्रकार दोनों तरह का ‘शौच’ (शुद्धता) ऐसे कर्मों में भी रहती है।

हे पार्थ! यह शौच उस गुण का नाम है जिसके कारण मन शुद्ध भक्ति से परिपूर्ण रहता है तथा शरीर शुद्ध आचरण से अलंकृत रहता है और इस प्रकार पूरा जीवन-क्रम बाह्याभ्यन्तर शुद्ध बना रहता है। उन कर्मों में यह चौथा गुण भी विद्यमान रहता है। पृथ्वी की तरह पूर्णरूप से सब कुछ सहन करने का जो गुण है, हे पाण्डव! उसी का नाम ‘क्षमा’ है। जिस प्रकार संगीत में पंचम स्वर विद्यमान रहता है, ठीक उसी प्रकार उन कर्मों में यह क्षमावाला पाँचवाँ गुण विद्यमान रहता है। यदि गंगा का प्रवाह टेढ़ा-मेढ़ा भी हो तो वह भी गंगा सदा सीधी समुद्र की ओर प्रवाहित होती रहती है और ईंख चाहे अपनी बाढ़ के कारण टेढ़ा-मेढ़ा भी हो तो भी उसमें सर्वत्र समानरूप से मधुरता भरी रहती है। ठीक इसी प्रकार जीव की वृत्ति टेढ़ी-मेढ़ी होने पर भी उसमें पूरी-पूरी सरलता रखने के गुण को ‘आर्जव’ नाम से पुकारते हैं और उन कर्मों में यह आर्जव नाम का छठा गुण भी होता है। माली अत्यधिक श्रम करके वृक्षों की जड़ में जल डालता है; पर फिर भी जैसे उसे इस बात का पता होता है कि मुझे इन वृक्षों से फल की प्राप्ति होगी और मेरा सारा श्रम सार्थक होगा, ठीक वैसे ही इस प्रसंग में यह तथ्य भली-भाँति जान लेना ही ‘ज्ञान’ कहलाता है कि शास्त्रानुसार कर्मों को करके ईश्वर की प्राप्ति करना अत्यावश्यक है तथा ईश्वर की वह प्राप्ति इस प्रकार हमें अवश्य हो जायगी और यही उन कर्मों का सातवाँ गुण होता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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