ज्ञानेश्वरी पृ. 749

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति ॥36॥

भगवान् कहते हैं-“हे सुविज्ञ अर्जुन! त्रिविध सुख के लक्षण बतलाने की जो मैंने तुमसे प्रतिज्ञा की थी, वह अब तुम सुनो। आत्मा की भेंट होने पर जीव को जो सुख प्राप्त होता है, हे किरीटी! अब मैं उसी सुख का स्वरूप तुम्हारे समक्ष रखता हूँ। पर जैसे दिव्यौषध भी सिर्फ मात्रानुसार ली जाती है अथवा जैसे रसायन की क्रिया से राँगे से चाँदी बनायी जाती है अथवा जैसे लवण को जल बनाने के लिये उस पर दो-चार बार जल का छिड़काव करना पड़ता है, ठीक वैसे ही इस प्रसंग में उसी को आत्मसुख समझना चाहिये, जिसमें जीवों का दुःख उस दशा में विनष्ट हो जाता है, जिस दशा में वह सुख की होने वाली थोड़ी-थोड़ी अनुभूति के साथ-साथ अपना तत्सम्बन्धी अभ्यास भी बढ़ाता चलता है; पर वह भी त्रिगुणों से सिद्ध हुआ है। अब मैं उसके भी एक-एक रूप का वर्णन करता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो।[1]


यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥37॥

जैसे सर्पों से आवेष्टित होने के कारण चन्दन-वृक्ष का तना अथवा पिशाचों के पहरे के कारण जमीन में गड़े हुए भाण्डार का मुख भयंकर हो जाता है, वैसे ही स्वर्ग-सुख यद्यपि अत्यन्त मधुर होता है, तो भी बीच में जैसे यज्ञ-याग इत्यादि विधानों का उपक्रम करना पड़ता है अथवा भाँति-भाँति के कष्ट पहुँचाने के कारण बालकों की बाल्यावस्था पीड़ाकारक होती है; जैसे दीपक जलाने वाले को पहले धुएँ का कष्ट सहना पड़ता है अथवा मुख में रखते समय जैसे औषधि कड़वी जान पड़ती है, वैसे ही हे पाण्डव! उस सुख के प्रवेश द्वार पर ही यम-दम इत्यादि के संकट सहने पड़ते हैं। दिखायी देने वाली समस्त वस्तुओं के प्रति व्यक्ति में जो प्रेम होता है, उस प्रेम को विनिष्ट करने वाली इस प्रकार की विरक्ति उत्पन्न होती है, जो स्वर्ग तथा संसार के सारे बन्धनों को समूल उखाड़ कर फेंक देती है। नित्य-अनित्य विवेक के श्रवण तथा कठोर व्रतों के आचरण से बुद्धि इत्यादि के धुर्रे उड़ जाते हैं, प्राण वायु और अपान वायु की लहरों को सुषुम्ना नाड़ी का मुख निगल जाता है; पर ये सारे कष्ट केवल शुरू में ही होते हैं।

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (772-777)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः