ज्ञानेश्वरी पृ. 747

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसंगेन फलाकाङ्क्षी धृति:सा पार्थ राजसी॥ 34॥

तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण फिर कहने लगे-“जो जीव देह धारण करके स्वर्ग में तथा इस संसार में भी धर्म अर्थ और काम-इन तीनों को यथास्थित प्राप्त करके वैभवपूर्वक रहता है, वह जीव जिस धृति के बल पर संकल्प तथा विकल्पों के सागर में धर्म, अर्थ और काम के जहाज भरकर कर्मों का व्यापार करता है तथा कर्म को ही पूँजी मानकर वह जीव जिस धृति के सहयोग से उस पूँजी को चतुर्गुण बढ़ाने के लिये कठोर परिश्रम करता है, हे पार्थ! उसे ही राजस धृति कहते हैं। मैं तीसरी जो तामस धृति है उसके भी लक्षण बतलाता हूँ; मन लगाकर सुनो।”[1]


यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृति: सा पार्थ तामसी ॥35॥

“कोयला जैसे कालिख का बना हुआ होता है, वैसे ही अधम गुणों से जिसका स्वरूप बना हुआ है, यदि उस अधम कोटि के तम को भी गुण कहा जाय तो फिर राक्षस को भी साधु पुरुष क्यों न कहा जाय? पर ग्रहों में जो धधकता हुआ अंगारा है, उसे भी जैसे लोग मंगल नाम से सम्बोधित करते हैं, ठीक वैसे भी तम को भी गुण का नाम मिल जाता है। हे वीर शिरोमणि! जो तम समस्त दोषों की खान है, उस तम की कमाई से जिस व्यक्ति की मूर्ति निर्मित होती है, वह व्यक्ति आलस्य को सदा अपनी काँख में दबाये रहता है और जैसे पापों का पोषण करने से दुःख आदमी को त्यागकर कभी नहीं जाते, ठीक वैसे ही उस आलसी को निद्रा भी कभी नहीं त्यागती। जैसे पत्थर की कठोरता कभी नहीं छूटती, वैसे ही देहरूपी धन पर प्रेम होने के कारण भय भी उसे कभी नहीं छोड़ता और जैसे कृतघ्नता के पल्ले में पाप सदा बँधे ही रहते हैं, वैसे ही प्रत्येक चीज पर अनुराग होने के कारण शोक का भी उसमें अनवरत निवास रहता है। वह अहर्निश अपने हृदय से असंतोष को लगाये रहता है और यही कारण है कि वह विषाद के संग में मैत्री स्थापित कर लेता है। जैसे दुर्गन्ध लहसुन को अथवा व्याधि अपथ्य करने वाले को कभी छोड़कर नहीं जाती वैसे ही विषाद भी उसे अन्त-समय तक कभी नहीं छोड़ता। वह तारुण्य, द्रव्य तथा वासना के प्रति उत्साह और मोह निरन्तर बढ़ाता ही रहता है, इसलिये मद उसे अपने रहने का आश्रय-स्थल ही बना लेता है।

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (745-748)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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