श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण फिर कहने लगे-“जो जीव देह धारण करके स्वर्ग में तथा इस संसार में भी धर्म अर्थ और काम-इन तीनों को यथास्थित प्राप्त करके वैभवपूर्वक रहता है, वह जीव जिस धृति के बल पर संकल्प तथा विकल्पों के सागर में धर्म, अर्थ और काम के जहाज भरकर कर्मों का व्यापार करता है तथा कर्म को ही पूँजी मानकर वह जीव जिस धृति के सहयोग से उस पूँजी को चतुर्गुण बढ़ाने के लिये कठोर परिश्रम करता है, हे पार्थ! उसे ही राजस धृति कहते हैं। मैं तीसरी जो तामस धृति है उसके भी लक्षण बतलाता हूँ; मन लगाकर सुनो।”[1]
“कोयला जैसे कालिख का बना हुआ होता है, वैसे ही अधम गुणों से जिसका स्वरूप बना हुआ है, यदि उस अधम कोटि के तम को भी गुण कहा जाय तो फिर राक्षस को भी साधु पुरुष क्यों न कहा जाय? पर ग्रहों में जो धधकता हुआ अंगारा है, उसे भी जैसे लोग मंगल नाम से सम्बोधित करते हैं, ठीक वैसे भी तम को भी गुण का नाम मिल जाता है। हे वीर शिरोमणि! जो तम समस्त दोषों की खान है, उस तम की कमाई से जिस व्यक्ति की मूर्ति निर्मित होती है, वह व्यक्ति आलस्य को सदा अपनी काँख में दबाये रहता है और जैसे पापों का पोषण करने से दुःख आदमी को त्यागकर कभी नहीं जाते, ठीक वैसे ही उस आलसी को निद्रा भी कभी नहीं त्यागती। जैसे पत्थर की कठोरता कभी नहीं छूटती, वैसे ही देहरूपी धन पर प्रेम होने के कारण भय भी उसे कभी नहीं छोड़ता और जैसे कृतघ्नता के पल्ले में पाप सदा बँधे ही रहते हैं, वैसे ही प्रत्येक चीज पर अनुराग होने के कारण शोक का भी उसमें अनवरत निवास रहता है। वह अहर्निश अपने हृदय से असंतोष को लगाये रहता है और यही कारण है कि वह विषाद के संग में मैत्री स्थापित कर लेता है। जैसे दुर्गन्ध लहसुन को अथवा व्याधि अपथ्य करने वाले को कभी छोड़कर नहीं जाती वैसे ही विषाद भी उसे अन्त-समय तक कभी नहीं छोड़ता। वह तारुण्य, द्रव्य तथा वासना के प्रति उत्साह और मोह निरन्तर बढ़ाता ही रहता है, इसलिये मद उसे अपने रहने का आश्रय-स्थल ही बना लेता है। |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (745-748)
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