श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अथवा हे किरीटी! उत्तम-से-उत्तम अन्नादि पदार्थ भी शरीर में प्रविष्ट होकर मल बन जाते हैं, जो गुणों को भी दोषों का रूप प्रदान करता है। तथा सर्प की भाँति अमृत को भी विष बना देता है और संयोगवश कोई इस प्रकार का शुभ कर्म उपस्थित होने पर जिससे सांसारिक जीवन भी सार्थक हो सकता है हो तथा परलोक भी सध सकता हो, जिसे निद्रा इतनी जल्दी आ जाती है कि मानों उसके पास रखी हुई हो और दुर्व्यवहार शुरू करते ही जिसकी नींद इस प्रकार उड़ जाती है कि मानों उससे बहुत घृणा करती हो, जो कल्याण का समय आने पर आलस्य से ठीक वैसे ही भरा रहता है, जैसे द्राक्षा अथवा आम्ररस खाने के दिनों में काक पक्षी के मुहँ में रोग हो जाता है अथवा दिन के प्रकाश में जैसे उलूक की आँखे अंधी हो जाती है और यदि कोई कुकृत्य करने के लिये कहा जाय तो मानों आलस्य जिसकी आज्ञा में रहता है और सद्यः सुदूर भाग जाता है, जिसके अन्तःकरण में मत्सर ठीक उसी तरह बँधा रहता है, जैसे समुद्र के पेट में सदा बड़वाग्नि धधकती रहती है और जो आजन्म वैसे ही नासिकापर्यन्त मत्सर से लबालव भरा रहता है जैसे कंडों की आग में धूम्र भरा रहता है, अथवा मलद्वार में सदा दुर्गन्ध ही भरी रहती है और हे वीर शिरोमणि! जो ऐसे-ऐसे कामिक व्यापारों का श्रीगणेश करता है, जिनका सूत्र कल्पान्त से भी और आगे तक पहुँच जाता है, पर यदि कोई हितकारक कार्य करना हो तो उसके एक तृण की उपलब्धि नहीं होती, हे पार्थ! इस संसार में इस प्रकार एकमात्र पाप के मूर्तिमान् समूह के रूप में ही जो पुरुष दृष्टिगोचर हो, उसके विषय में अच्छी तरह यह जान लेना चाहिये कि वह तामस कर्ता है। हे सज्जन शिरोमणि! इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म, कर्ता तथा अज्ञान के त्रिविध लक्षण बतला दिये हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (663-689)
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