ज्ञानेश्वरी पृ. 740

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग


अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठोऽनैष्कृतिकोऽलस: ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥28॥

जैसे अग्नि को इस बात का पता नहीं होता कि मेरे ही कारण दूसरी वस्तुएँ कैसे जलती हैं अथवा जैसे शस्त्र को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मेरे धार की तीक्ष्णता के कारण दूसरों को असह्य वेदना किस प्रकार होती है अथवा जैसे कालकूट नामक विष को अपने घातक कृत्य का ज्ञान नहीं होता, ठीक वैसे ही हे धनंजय! जो अपने समक्ष पड़ने वाले जीवों का घात करके अपने दुष्कर्म जारी रखता है तथा उन दुष्कर्मों को करते समय स्वेच्छानुसार बड़ी तीव्र गति से दौड़ लगाने वाले बादलों की भाँति इस बात का जरा-सा भी ध्यान नहीं रखता कि मैं क्या कर रहा हूँ और हे धनंजय! जिसके कार्य-कारण में ताल-मेल न होने के कारण विक्षिप्त व्यक्ति भी जिसके सामने पासंग तक नहीं ठहरता तथा बैल के उदर में लगी हुई किलनी की भाँति जो इन्द्रियों के बढ़े हुए विषयभोग के आधार पर अपना जीवन चलाता है, जिसका रहन-सहन उस बालक की भाँति होता है, जो कभी स्वतः हँस पड़ता है और कभी रुदन करने लगता है, माया के वशीभूत होने के कारण जिसे यह पता ही नहीं होता कि करणीय क्या है, अकरणीय क्या है और एकमात्र कूड़ा-करकट के कारण बढ़ने वाले कूड़ेखाने की भाँति जो सिर्फ मिथ्या समाधान से ही फूला रहता है और इसीलिये जो अपनी अहंमन्यता के कारण स्वयं ईश्वर के सम्मुख भी सिर नहीं झुकाता और अपनी ऐंठ के आगे पहाड़ को भी कुछ नहीं समझता है और जिसका मन कपटी तथा रहन-सहन चोरों की भाँति होता है तथा दृष्टि मानो बाजार में बैठने वाली वेश्याओं की दृष्टि-जैसी होती है, किंबहुना जिसकी पूरी-की-पूरी देह ही कपट से निर्मित होती है, जिसका जीवन मानो जुआरियों का अड्डा होता है, जिसके दर्शन को मानो दर्शन नहीं अपितु स्वार्थी भीलों का गाँव ही जानना चाहिये और इसीलिये जिसके रास्ते कभी किसी को जाना ही नहीं चाहिये, दूसरों के सद्कृत्य जिसके चित्त में काँटे की भाँति चुभते हैं और दूसरों के अच्छे कृत्य भी जिसके चक्कर में पड़कर ठीक वैसे ही विद्रूप हो जाते हैं, जैसे लवण के संयोग से दुग्ध पीने योग्य नहीं रह जाता; अग्नि के चपेट में पड़कर शीतल पदार्थ भी गलकर आग का रूप धारण कर लेता है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः