ज्ञानेश्वरी पृ. 739

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: ।
हर्षशोकान्वित: कर्ता राजस: परिकीर्तित: ॥27॥

जैसे गाँव में स्थित कूड़ेखाने में ही सारा कचरा एवं कूड़ा-करकट आदि गन्दगी आकर एकत्रित होता है अथवा समस्त अमंगलजनक वस्तुएँ श्मशान में ही आश्रय प्राप्त करती हैं, वैसे ही जो व्यक्ति पूरे संसार की वासनाओं के दोषों का पावदान होता है और इसीलिये जो व्यक्ति एकमात्र ऐसे ही कर्मों का आयोजन करता है, जिनमें फलों की अखण्ड उपलब्धि होती हुई दृष्टिगत होती है और उन कर्मों से होने वाले लाभ की एक कौड़ी भी बिना छोड़े जो उनके लिये अपने प्राण तक गँवाने के लिये सदा तत्पर रहता है, जो स्वयं अपनी चीजों की तो पूर्णतया रक्षा करता ही है, पर साथ ही दूसरों की चीज अपहरण करने के लिये भी ठीक वैसे ही ध्यान लगाये रहता है, जैसे मत्स्य को पकड़ने के लिये बगला निरन्तर ध्यान लगाये रहता है, जिसकी दशा बेर के उस पेड़ की तरह होती है जो अपने सन्निकट आने वाले को तो अपने काँटों से पकड़ता है तथा छूने वालों का देह ही छेद डालता है और इतना होने पर भी जिसके फल अपने खटास के कारण जिह्वा के लिये अत्यन्त दुःखदायक होते हैं, जो निरन्तर दूसरों को दुःख प्रदान करता रहता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरों के हित की कुछ भी परवाह नहीं करता, अपना काम करने के लिये दूसरों को तनिक भी अवसर नहीं देता और जो भावना स्वयं को पसन्द न हो-वह चाहे कितनी ही उदात्त क्यों न हो, तो भी-उस भावना में जो कभी अपना नहीं रमाता, जिसकी दशा धतूरे के उस फल की भाँति होती है जिसके अंदर विष भरा होता है और बाहर काँटेदार कवच होता है तथा इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर शुद्धता से एकदम रिक्त रहता है और हे धनंजय! निजकृत कर्म का फल प्राप्त होने पर जो मारे आनन्द के पूरे संसार को मुँह चिढ़ाने लगता है अथवा यदि आरम्भ किया हुआ कर्म निष्फल हो जाय तो जो पुरुष शोकग्रस्त होकर समस्त संसार को धिक्कारने लगता है और हे पार्थ! जो इस प्रकार कर्मों में उलझा रहता है, उसके विषय में ठीक तरह से यह समझ रखना चाहिये कि वह राजस कर्ता है। अब मैं उस तामस-कर्ता के सम्बन्ध में बतलाता हूँ जिसे समस्त दुष्कर्मों का एकमात्र फलने-फूलने का प्रमुख स्थान ही जानना चाहिये।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (650-662)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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