ज्ञानेश्वरी पृ. 735

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन: ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥24॥

जैसे कोई मूढ़ व्यक्ति अपने घर में माता-पिता के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करता, पर बाहर सारे संसार का आदर करता है अथवा तुलसी के बिरवे में तो कभी दूर से भी जल का एक छींटा भी नहीं डालता, पर द्राक्षा की जड़ दूध से सींचता है, ठीक वैसे ही जो नित्य-नैमित्तिक कर्मों के लिये तो अपने बैठने की जगह से कभी उठने का नाम भी नहीं लेता और कोई अपने स्वार्थ की बात आने पर अपने देह को पीड़ित करने में भी कोई विशेष हानि नहीं समझता और जैसे कोई अच्छी फसल उत्पन्न करने के लिये बीज बोते समय कभी यह नहीं कहता कि बीज बोने का काम बहुत हो चुका, ठीक वैसे ही जिसे उस जगह पर द्रव्य खर्च करने में कुछ भी चिन्ता नहीं सताती, जिस जगह से उसे यथेष्ट लाभ की आशा होती है अथवा जैसे पारस पत्थर के प्राप्त हो जाने पर रसायनविद् (कीमियागर) लौह खरीदने हेतु अपना सारा वैभव भी बहुत प्रसन्नता से बेच डालता है, ठीक वैसे ही राजस्वकर्ता भी आगे मिलने वाले फल पर दृष्टि रखकर बड़े-बड़े कष्टसाध्य काम्य कर्म करता है और ऐसे चाहे कितने ही अधिक कर्म वह क्यों न सम्पन्न कर डाले, पर फिर भी वह उन सबको अत्यल्प ही समझता है। वह फलाशा में उलझा रहता है और यही कारण है कि जितने काम्य कर्म हैं वे सब बहुत अच्छी तरह से यथाविधि करता है और साथ-ही-साथ जो-जो काम करता है उन सबका ढिंढोरा भी पीटता चलता है और सारे जगत् में अपने नाम के महत्त्व का गान करते हुए यह कहता फिरता है कि इन समस्त कामों को करने वाला मैं ही हूँ।

फिर उसमें कर्तृत्वाभिमान इतना प्रबल हो जाता है कि वह अपने पिता अथवा गुरु का भी कोई महत्त्व नहीं बचने देता। जैसे जानलेवा ज्वर किसी औषध को नहीं मानता, वैसे ही वह भी किसी को नहीं मानता। इस प्रकार अहंकार के द्वारा पछाड़े हुए तथा फल के चक्कर में पड़े हुए मनुष्य के द्वारा जो-जो कर्म अनुरागपूर्वक होते हैं और वह भी नाना प्रकार के कष्ट सहकर और इस प्रकार होते हैं, जैसे मदारी अपनी उदर-पूर्ति के लिये भाँति-भाँति के कठिन और कष्टसाध्य खेल करते हैं, वे सब-के-सब कर्म राजस कोटि के होते हैं। जैसे अन्न के एक कण के निमित्त चूहा पहाड़ खोद डालता है अथवा सेवार के लिये मेढक पूरा समुद्र मटमैला कर डालता है अथवा भीख के लिये सँपेरा जैसे सर्प लेकर घर-घर घूमता है, वैसे ही नाना प्रकार के कष्ट सहकर निज लाभ हेतु जो कार्य किये जाते हैं, वे सब-के-सब राजस होते हैं। पर क्या कहा जाय; कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनको ऐसे कष्ट ही बहुत अच्छे लगते हैं। आशय यह कि जैसे एक कण पाने के लिये भी दीमक पातालपर्यन्त सुराख करता हुआ चला जाता है, ठीक वैसे ही स्वर्गसुख पाने की लालसा में जो नाना प्रकार के क्लेशपूर्ण श्रम किये जाते हैं, उन्हीं क्लेशकारक सकाम कर्मों को राजस कोटि का कर्म जानना चाहिये। अब मैं तुमकों तामस कर्म के लक्षण बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (595-610)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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