ज्ञानेश्वरी पृ. 734

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


नियतं संगरहितमरागद्वेषत: कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥23॥

जैसे पतिपरायणा स्त्री अपने प्रिय पति को आलिंगन करती है, वैसे ही अधिकारानुसार जो कर्तव्य स्वभावतः आकर हमारे गले पड़ते हैं, जो कर्तव्य हमारे अधिकार के कारण हमारे लिये ठीक वैसे ही भूषण होते हैं, जेसे श्यामवर्ण के शरीर में चन्दन का लेप अथवा तारुण्य अवस्थावाली स्त्री की आँखों में काजल शोभा देता है, वही नित्य कर्म हैं और वे अच्छे ही होते हैं और यदि नैमित्तिक कर्म भी उनके साथ मिल जायँ, तब तो मानों सोने में सुगन्ध ही आ जाती है। माता अपने बच्चे का भरण-पोषण अपनी आत्मा तथा तन-मन को नाना प्रकार के कष्ट देकर भी करती है, पर फिर भी उसका मन कभी ऊबता नहीं। ठीक इसी प्रकार समस्त कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये, पर उन कर्मफलों की ओर एकदम दृष्टि नहीं रखनी चाहिये और समस्त कर्म ब्रह्मार्पण कर देने चाहिये। जिस समय कोई स्त्री अपने पति तथा प्रियजनों को भोजन परोसने लगती है, उस समय उसके मन में यह भावना ही नहीं जगती कि यह सम्पूर्ण भोजन समाप्त हो जायगा तथा मेरे लिये इसमें से कुछ बचेगा भी अथवा नहीं। मनुष्य को सत्कर्म करने के समय भी ठीक इसी प्रकार की मनोवृत्ति रखनी चाहिये। ऐसी दशा में यदि काम न पूरा उतरे तो विषाद कभी मनुष्य को दुःखी नहीं करता अथवा यदि वह पूरा हो जाय तो वह अत्यधिक प्रसन्न नहीं होता। हे धनंजय! ऐसी युक्तियों से जिन कर्मों को किया जाता है, वे कर्म अपने इसी गुण के कारण सात्त्विक कहलाते हैं। अब मैं तुमको राजस कर्म के लक्षण के बारे में बतलाता हूँ। तुम अपना अवधान (एकाग्रता) कम मत होने दो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (586-594)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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