श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे पतिपरायणा स्त्री अपने प्रिय पति को आलिंगन करती है, वैसे ही अधिकारानुसार जो कर्तव्य स्वभावतः आकर हमारे गले पड़ते हैं, जो कर्तव्य हमारे अधिकार के कारण हमारे लिये ठीक वैसे ही भूषण होते हैं, जेसे श्यामवर्ण के शरीर में चन्दन का लेप अथवा तारुण्य अवस्थावाली स्त्री की आँखों में काजल शोभा देता है, वही नित्य कर्म हैं और वे अच्छे ही होते हैं और यदि नैमित्तिक कर्म भी उनके साथ मिल जायँ, तब तो मानों सोने में सुगन्ध ही आ जाती है। माता अपने बच्चे का भरण-पोषण अपनी आत्मा तथा तन-मन को नाना प्रकार के कष्ट देकर भी करती है, पर फिर भी उसका मन कभी ऊबता नहीं। ठीक इसी प्रकार समस्त कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये, पर उन कर्मफलों की ओर एकदम दृष्टि नहीं रखनी चाहिये और समस्त कर्म ब्रह्मार्पण कर देने चाहिये। जिस समय कोई स्त्री अपने पति तथा प्रियजनों को भोजन परोसने लगती है, उस समय उसके मन में यह भावना ही नहीं जगती कि यह सम्पूर्ण भोजन समाप्त हो जायगा तथा मेरे लिये इसमें से कुछ बचेगा भी अथवा नहीं। मनुष्य को सत्कर्म करने के समय भी ठीक इसी प्रकार की मनोवृत्ति रखनी चाहिये। ऐसी दशा में यदि काम न पूरा उतरे तो विषाद कभी मनुष्य को दुःखी नहीं करता अथवा यदि वह पूरा हो जाय तो वह अत्यधिक प्रसन्न नहीं होता। हे धनंजय! ऐसी युक्तियों से जिन कर्मों को किया जाता है, वे कर्म अपने इसी गुण के कारण सात्त्विक कहलाते हैं। अब मैं तुमको राजस कर्म के लक्षण के बारे में बतलाता हूँ। तुम अपना अवधान (एकाग्रता) कम मत होने दो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (586-594)
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