ज्ञानेश्वरी पृ. 733

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

वास्तव में तो उसे ‘ज्ञान’ कहना ही समीचीन नहीं है, पर फिर भी जो मैं उसे ज्ञान कहता हूँ उसका एकमात्र कारण यही है कि जैसे जन्मान्ध की आँखे देखने में बहुत अच्छी जान पड़ती हैं अथवा बहरे के कान देखने में ठीक लगते हैं अथवा मद्य को जैसे लोग ‘पान’ कहते हैं ठीक वैसे ही उस तामस ज्ञान का भी यह ‘ज्ञान’ नाम एकमात्र संकेत-सूचक है। आशय यह कि जो ज्ञान तामसी वृत्ति का होता है, वह वास्तव में ज्ञान ही नहीं है। उसे तो प्रत्यक्ष अन्धकार ही जानना चाहिये।

हे श्रोत्र शिरोमणि! इस प्रकार त्रिगुणों के कारण होने वाले ज्ञान के तीनों प्रकार मैंने तुम्हें समस्त लक्षणों के साथ बतला दिये हैं। अब हे धनुर्धर! इसी तीन प्रकार के ज्ञान के प्रकाश से कर्ताओं की समस्त क्रियाएँ चलती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। इसीलिये जैसे चलते हुए प्रवाह के समक्ष जो जल आता है, वह उसी में मिलकर उसके साथ प्रवाहित होने लगता है, वैसे ही कर्म भी तीनों प्रकार के ज्ञान के तीनों मार्गों पर चलते रहते हैं और एक ही कर्म ज्ञान के तीन भेदों के कारण तीन प्रकार का हो जाता है। अब मैं उनमें से सर्वप्रथम सात्त्विक कर्म के लक्षण के सम्बन्ध में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (549-585)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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