श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
वास्तव में तो उसे ‘ज्ञान’ कहना ही समीचीन नहीं है, पर फिर भी जो मैं उसे ज्ञान कहता हूँ उसका एकमात्र कारण यही है कि जैसे जन्मान्ध की आँखे देखने में बहुत अच्छी जान पड़ती हैं अथवा बहरे के कान देखने में ठीक लगते हैं अथवा मद्य को जैसे लोग ‘पान’ कहते हैं ठीक वैसे ही उस तामस ज्ञान का भी यह ‘ज्ञान’ नाम एकमात्र संकेत-सूचक है। आशय यह कि जो ज्ञान तामसी वृत्ति का होता है, वह वास्तव में ज्ञान ही नहीं है। उसे तो प्रत्यक्ष अन्धकार ही जानना चाहिये। हे श्रोत्र शिरोमणि! इस प्रकार त्रिगुणों के कारण होने वाले ज्ञान के तीनों प्रकार मैंने तुम्हें समस्त लक्षणों के साथ बतला दिये हैं। अब हे धनुर्धर! इसी तीन प्रकार के ज्ञान के प्रकाश से कर्ताओं की समस्त क्रियाएँ चलती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। इसीलिये जैसे चलते हुए प्रवाह के समक्ष जो जल आता है, वह उसी में मिलकर उसके साथ प्रवाहित होने लगता है, वैसे ही कर्म भी तीनों प्रकार के ज्ञान के तीनों मार्गों पर चलते रहते हैं और एक ही कर्म ज्ञान के तीन भेदों के कारण तीन प्रकार का हो जाता है। अब मैं उनमें से सर्वप्रथम सात्त्विक कर्म के लक्षण के सम्बन्ध में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (549-585)
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