श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
अथवा यदि यह मान लिया जाय कि ईश्वर है तथा वही सबको भोग भोगने में प्रवृत्त करता है तो जो ज्ञान व्यक्ति के मन में यह विचार उत्पन्न करता है कि चलो, उस ईश्वर को ही बेच खाओ जिससे सारे बवाल ही खत्म हो जायँ अथवा यदि यह मान लिया जाय कि हमारे गाँव के मन्दिर में पत्थर का जो ईश्वर रखा हुआ है, वास्तव में वही पूरे विश्व का नियमन करने वाला है तो जो ज्ञान मनुष्य से यह कहलाता है कि तो फिर ये देशभर के पहाड़ क्यों मौन साधे रहते हैं और यही पूरे विश्व का नियमन क्यों नहीं करते? आशय यह कि जिस ज्ञान के कारण व्यक्ति के मन में यह विचार उठता है कि यदि पलभर के लिये यह मान भी लिया जाय कि ईश्वर नाम की कोई चीज है, तो वह सिर्फ पाषाण ही साबित होता है तथा आत्मा एकमात्र देह ही है, पाप-पुण्य इत्यादि जो दूसरी बहुत-सी बातें कही जाती हैं, उन्हें एकदम मिथ्या समझकर जो ज्ञान यह निश्चित कराता है कि सदा विषयों में ही लिप्त रहना तथा वनाग्नि की भाँति सर्वस्व हवन करते चलना ही ठीक है, उसी ज्ञान का नाम तामस है। जिस ज्ञान के कारण व्यक्ति के मन में यह विश्वास उमड़ता है कि चर्मचक्षुओं को जो कुछ दृष्टिगोचर होता है तथा इन्द्रियाँ जिस चीज की चसका लगा दें, वही चीजें ठीक हैं, उसी ज्ञान को तामस कहते हैं। किंबहुना, हे पार्थ, यही विचारधारा बढ़ती-बढ़ती इस प्रकार का रूप धारण कर लेती है कि जैसे धूम्रमेघ आकाश में व्यर्थ ही इधर-उधर चक्कर काटते हैं अथवा जैसे कुछ जंगली वनस्पतियों न तो हरी रहने पर ही किसी उपयोग में आती हैं और सूखने पर ही उपयोगी सिद्ध होती हैं और स्वतः बढ़ती-बढ़ती अन्ततः विनष्ट हो जाती हैं अथवा जैसे ईक्षु का ऊर्ध्व भाग, नपुंसक मनुष्य अथवा करील के वृक्ष चाहे कितने ही क्यों न बढ़ें, पर वे किसी काम के नहीं होते हैं अथवा बालक का मनोरथ, चोरों के घर का धन तथा बकरी के गले में निकला हुआ स्तन चाहे देखने में कितना ही खूबसूरत क्यों न हो पर फिर भी एकदम निष्फल होता है, ठीक वैसे ही जो ज्ञान व्यर्थ और तेजशून्य दृष्टिगत होता है, उसी को मैं तामस ज्ञान कहता हूँ। |
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