श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
आशय यह है कि जो ज्ञान यह विचार ही नहीं करता कि अमुक चीज निषिद्ध है और उसे त्याग देना चाहिये तथा अमुक चीज विहित है उसको स्वीकार करना चाहिये, जो उन समस्त चीजों को अपने उपभोग का विषय बना लेता है जो उसके समक्ष उपस्थित होती हैं तथा जो ज्ञान प्राप्त होने वाली हर एक स्त्री की शिश्न के हवाले कर देता है और हर एक द्रव्य को उदर को सौंप देता है, जो ज्ञान जल पर दृष्टि पड़ने पर यह नहीं विचारता कि यह पवित्र है या अपवित्र है और जो केवल यही समझकर उसे सद्यः पान कर जाता है कि इससे मेरी प्यास तो बुझेगी और जो खाने-पीने के विषय में भी अपना यही सिद्धान्त रखता है और यह चीज खाने योग्य है तथा यह चीज खाने-योग्य नहीं है, यह निन्दनीय है और यह अनिन्दनीय है इत्यादि का जरा-सा भी विचार नहीं करता तथा यही समझता है कि जो कुछ मुँह को भाता है, वही पवित्र है स्त्री जाति के विषय में भी जो सिर्फ अपनी स्पर्शेन्द्रिय को ही निर्णायक समझता है और उसके संग शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना ही अपना प्रधान लक्ष्य रखता है तथा एकमात्र उसी को अपना सगा समझता है जिससे उसका कोई स्वार्थ सिद्ध होता है और सगे-सम्बन्धियों के लिये शारीरिक सम्बन्ध को कुछ भी महत्त्व नहीं देता, आशय यह कि जिस ज्ञान के कारण इस प्रकार का विचार उत्पन्न होता है, वही ज्ञान तामस कहलाता है। मृत्यु सबको निगल जाती है और अग्नि सब कुछ भस्म कर डालती है। इसी प्रकार तामस ज्ञान वाले को भी निरन्तर यही जान पड़ता है कि समस्त संसार एकमात्र मेरे ही उपभोग के लिये है, इस प्रकार जो व्यक्ति यह मान लेता है कि सम्पूर्ण विश्व सिर्फ मेरे ही उपभोग का विषय है तो उसके झोली में मात्र एक ही फल आता है-वह है अपने देह का पोषण करना। जैसे आकाश से गिरे हुए जल का अन्तिम आश्रय स्थान एकमात्र समुद्र ही होता है, वैसे ही तामसी ज्ञान के समस्त कृत्य भी एकमात्र निज उदर-पोषण हेतु ही होते हैं। यही नहीं, जिस ज्ञान में यह विचार ही नहीं होता कि स्वर्ग तथा नरक नाम की भी कोई चीज है तथा हमें स्वर्ग पाने के लिये और नरक से बचने के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये और इन सबकी जानकारी के लिये जिस ज्ञान में सिर्फ अन्धकार-ही-अन्धकार भरा होता है, जिस ज्ञान की पकड़ सिर्फ यहीं तक होती है कि देह-पिण्ड ही आत्मा है तथा देवता सिर्फ पत्थर की प्रतिमा हैं, जो ज्ञान यह बतलाता है कि देह का नाश होते ही सम्पूर्ण कृत्यों सहित आत्मा भी विनष्ट हो जाती है और तब कर्म-भोग हेतु कोई बच ही नहीं पाता। |
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