ज्ञानेश्वरी पृ. 723

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसङ्‌ग्रह: ॥18॥

ज्ञान, ज्ञाता तथा ज्ञेय-इन तीनों की त्रिपुटी ही जगत् का बीज है और निःसन्देह इसी से कर्मों की प्रवृत्ति होती है। हे धनंजय! अब मै इन त्रिपुटियों का पृथक्-पृथक् वर्णन करता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। जीवरूपी सूर्यबिम्ब की श्रोत्र इत्यादि पाँच इन्द्रियरूपी रश्मियाँ वेगपूर्वक आकर विषयरूपी कमल की कलियाँ खिलाती हैं अथवा जीवरूपी राजा के सवाररहित मन-संकल्परूपी घोड़ों को साथ लेकर इन्द्रिय समुदाय विषय-प्रान्त में पहुँच जाते हैं और वहाँ से सुख-दुःख लूट लाते हैं। पर ये रूपक बहुत हो चुके। इन इन्द्रियों के द्वारा होने वाले व्यापारों से जो ज्ञान सुखों और दुःखों को अपने संग लेकर जीव को मिलता है, वह सुषुप्ति वाली अवस्था में जिसमें लीन होता है, उसी जीव को ज्ञाता कहते हैं और अब तक जिसका वर्णन किया गया है, हे पाण्डुसुत! उसी को ज्ञान कहते हैं। हे किरीटी! अविद्या के उदर में जन्म लेते ही जो ज्ञान तीन स्थानों में अपना विधान करता है और जो ज्ञान अपनी दौड़ के मार्ग में सामने ज्ञेय यानी ज्ञान-विषय का गोला फेंककर अपने पीछे की ओर ज्ञातृत्व के अभिमान की सृष्टि करता है तथा इस प्रकार ज्ञाता और ज्ञेय के मध्य में सम्बन्ध स्थापित करने का मार्ग प्रस्तुत होने पर जिस ज्ञान के सहयोग से इस मार्ग पर आवागमन निरन्तर चलता रहता है, ज्ञेय की सीमा तक ही जिस ज्ञान की दौड़ होती है और जो सम्पूर्ण पदार्थों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है, निःसन्देह वह ज्ञान सामान्य ज्ञान है। अब मैं तुमको ज्ञेय के भी लक्षण बतलाता हूँ, मन लगाकर सुनो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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