श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
ज्ञान, ज्ञाता तथा ज्ञेय-इन तीनों की त्रिपुटी ही जगत् का बीज है और निःसन्देह इसी से कर्मों की प्रवृत्ति होती है। हे धनंजय! अब मै इन त्रिपुटियों का पृथक्-पृथक् वर्णन करता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। जीवरूपी सूर्यबिम्ब की श्रोत्र इत्यादि पाँच इन्द्रियरूपी रश्मियाँ वेगपूर्वक आकर विषयरूपी कमल की कलियाँ खिलाती हैं अथवा जीवरूपी राजा के सवाररहित मन-संकल्परूपी घोड़ों को साथ लेकर इन्द्रिय समुदाय विषय-प्रान्त में पहुँच जाते हैं और वहाँ से सुख-दुःख लूट लाते हैं। पर ये रूपक बहुत हो चुके। इन इन्द्रियों के द्वारा होने वाले व्यापारों से जो ज्ञान सुखों और दुःखों को अपने संग लेकर जीव को मिलता है, वह सुषुप्ति वाली अवस्था में जिसमें लीन होता है, उसी जीव को ज्ञाता कहते हैं और अब तक जिसका वर्णन किया गया है, हे पाण्डुसुत! उसी को ज्ञान कहते हैं। हे किरीटी! अविद्या के उदर में जन्म लेते ही जो ज्ञान तीन स्थानों में अपना विधान करता है और जो ज्ञान अपनी दौड़ के मार्ग में सामने ज्ञेय यानी ज्ञान-विषय का गोला फेंककर अपने पीछे की ओर ज्ञातृत्व के अभिमान की सृष्टि करता है तथा इस प्रकार ज्ञाता और ज्ञेय के मध्य में सम्बन्ध स्थापित करने का मार्ग प्रस्तुत होने पर जिस ज्ञान के सहयोग से इस मार्ग पर आवागमन निरन्तर चलता रहता है, ज्ञेय की सीमा तक ही जिस ज्ञान की दौड़ होती है और जो सम्पूर्ण पदार्थों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है, निःसन्देह वह ज्ञान सामान्य ज्ञान है। अब मैं तुमको ज्ञेय के भी लक्षण बतलाता हूँ, मन लगाकर सुनो। |
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