ज्ञानेश्वरी पृ. 722

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे धनंजय! यदि अग्नि अग्नि के साथ संघर्ष कर बैठे तो भला उनमें से कौन किसे भस्म करेगी? यदि शस्त्र स्वयं पर ही प्रहार करे, तो उससे क्या होगा? इसी प्रकार जिसको यह पता ही नहीं है कि कर्म मुझसे पृथक् है, वह अपनी बुद्धि पर उन कर्मों का लेप ही किस प्रकार लगा सकता है? कार्य, कर्ता और क्रिया-इन तीनों की त्रिपुटी जिस व्यक्ति विषय में आत्मरूप ही हो जाती है, उसके लिये देह इत्यादि से होने वाले कर्म कभी बन्धनकारक नहीं हो सकते। इसका प्रमुख कारण यह है कि जो जीव स्वयं को कर्ता मानता है, वह दस इन्द्रियों के औजारों से पाँच प्रकार के हेतुओं को बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत करता है। फिर न्याय और अन्याय-दोनों प्रकार की नींव तैयार करता है तथा पलभर में वह कर्मरूपी मन्दिर का निर्माण कर देता है। इस महत्त्वपूर्ण और विशाल काम में आत्मा रत्तीभर भी सहयोग नहीं करती और यदि तुम यह प्रश्न खड़ा करो कि यह आत्मा कर्मों की पूर्व योजना में भी कुछ सहायक होती है अथवा नहीं? इसका उत्तर यह है कि वह उसमें रत्तीभर भी सहायक नहीं होती। जो आत्मा एकमात्र साक्षीभूत तथा आत्मस्वरूप है, वह क्या कभी यह कह सकती है कि कर्म-प्रवृत्ति के संकल्प उत्पन्न हों? पर जिस कर्म-प्रवृत्ति के चक्कर में समस्त लोग पड़े हुए हैं, उस प्रवृत्ति के दुःख भी कभी आत्मा को स्पर्श नहीं करते। अत: जो व्यक्ति पूर्णतया आत्मस्वरूप हो जाता है, वह कभी कर्मरूपी कैदखाने में रह ही नहीं सकता। पर जब अज्ञानरूपी पट पर ज्ञानरूपी उल्टा चित्र अंकित होता है, तभी कार्य, कर्ता तथा क्रिया-इन तीनों की जगत्-प्रसिद्ध त्रिपुटी चित्रित होती है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (403-460)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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