श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
चित्रों में अग्नि तथा जल-इन दोनों को ही एकदम ज्यों-के-त्यों दिखलाये जाते हैं, पर यह सारा-का-सारा खेल दृष्टि का ही होता है। वास्तव में चित्रपट में न तो अग्नि ही होती है और न तो जल ही होता है। ठीक इसी प्रकार मुक्त अथवा विदेही व्यक्तियों के देह एकमात्र प्राचीन संस्कारों के कारण ही चलते-फिरते हैं; पर अज्ञानियों की समझ में यह रहस्य तो आता ही नहीं और यही कारण है कि वे मुक्त व्यक्तियों को ही उन क्रियाओं का कर्ता समझते हैं; परन्तु यदि स्वाभाविक क्रियाओं के द्वारा तीनों लोकों का भी नाश हो जाय तो भी कभी यह नहीं समझना चाहिये कि यह नाश उन मुक्त अथवा विदेही व्यक्तियों के द्वारा किया गया है। भला यह कहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है कि हम सर्वप्रथम प्रकाश के सहयोग से अन्धकार को देखेंगे और फिर उसका नाश कर डालेंगे? कारण कि प्रकाश के आते ही अन्धकार तो स्वतः विनष्ट हो जायगा। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति में ज्ञान के सिवा अन्य कोई भाव ही नहीं रहता और उसे मारने के लिये स्वयं अपने से भिन्न अन्य कोई चीज ही शेष नहीं रह जाती। यही कारण है कि पाप और पुण्य की गन्ध उसकी बुद्धि में लेशमात्र भी नहीं होती। यदि कोई नदी आकर गंगा में समा जाय तो भी गंगा उससे कभी मैली नहीं होती। ठीक वही बात यहाँ भी है। |
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