ज्ञानेश्वरी पृ. 721

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

चित्रों में अग्नि तथा जल-इन दोनों को ही एकदम ज्यों-के-त्यों दिखलाये जाते हैं, पर यह सारा-का-सारा खेल दृष्टि का ही होता है। वास्तव में चित्रपट में न तो अग्नि ही होती है और न तो जल ही होता है। ठीक इसी प्रकार मुक्त अथवा विदेही व्यक्तियों के देह एकमात्र प्राचीन संस्कारों के कारण ही चलते-फिरते हैं; पर अज्ञानियों की समझ में यह रहस्य तो आता ही नहीं और यही कारण है कि वे मुक्त व्यक्तियों को ही उन क्रियाओं का कर्ता समझते हैं; परन्तु यदि स्वाभाविक क्रियाओं के द्वारा तीनों लोकों का भी नाश हो जाय तो भी कभी यह नहीं समझना चाहिये कि यह नाश उन मुक्त अथवा विदेही व्यक्तियों के द्वारा किया गया है। भला यह कहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है कि हम सर्वप्रथम प्रकाश के सहयोग से अन्धकार को देखेंगे और फिर उसका नाश कर डालेंगे? कारण कि प्रकाश के आते ही अन्धकार तो स्वतः विनष्ट हो जायगा। ठीक इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति में ज्ञान के सिवा अन्य कोई भाव ही नहीं रहता और उसे मारने के लिये स्वयं अपने से भिन्न अन्य कोई चीज ही शेष नहीं रह जाती। यही कारण है कि पाप और पुण्य की गन्ध उसकी बुद्धि में लेशमात्र भी नहीं होती। यदि कोई नदी आकर गंगा में समा जाय तो भी गंगा उससे कभी मैली नहीं होती। ठीक वही बात यहाँ भी है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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