ज्ञानेश्वरी पृ. 714

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति: ॥16॥

इस प्रकार हे कीर्तिशाली अर्जुन! पाँच कारणों से उत्पन्न होने वाले कर्मों के पाँच हेतु भी होते हैं और इन्हीं कि झंझटों में आत्मा फँस गयी है। जैसे सूर्य बिना किसी तरह का रूप धारण किये आँखों को भी तथा वस्तुओं के रूपों को भी प्रकाशित करता है, ठीक वैसे ही आत्मा भी स्वयं तो कर्म नहीं होती, पर फिर भी कर्मों को प्रकट करती रहती है। हे वीरशिरोमणि! जैसे दर्पण में अपना मुख देखनेवाला स्वयं न तो दर्पण ही होता है और न तो अपना प्रतिबिम्ब ही होता है, पर फिर भी वह उन दोनों को प्रकाशित करता है अथवा सूर्य जैसे स्वयं अहर्निश का अनुभव न करने पर भी उन्हें उत्पन्न करता है, ठीक वैसे ही हे पाण्डुसुत! आत्मा कर्म-कर्ता न होने पर भी उन्हें प्रकट करती है; परन्तु जिस मनुष्य की बुद्धि देहाभिमान के भ्रम में पड़े होने के कारण सदा देह में ही उलझी रहती है, उसके लिये आत्मज्ञान के विषय में एकमात्र मध्य रात्रि का घोर अन्धकार ही रहता है। जो लोग चैतन्य ईश्वर अथवा ब्रह्म को देह की सीमा में आबद्ध कर रखते हैं, उन्हें यह सिद्धान्त एकदम अटल प्रतीत होता है कि आत्मा ही कर्ता है; पर यह बात भी नहीं होती। उन्हें इस बात का भी दृढ निश्चय नहीं होता कि आत्मा ही कर्म-कर्ता है।

अपितु वे वास्तव में यही मानते हैं कि कर्म करने वाला मैं शरीर ही हूँ। इसका प्रमुख कारण यही है कि वह कभी ऐसी बातें अपने श्रवणेन्द्रियों तक पहुँचने भी नहीं देता कि मैं आत्मा हूँ और मैं एकमात्र समस्त कर्मों का साक्षी हूँ। यही कारण है कि वह असीम आत्मतत्त्व को इस देह से मापने की चेष्टा करता है; पर इसमें आश्चर्य ही क्या है? उलूक क्या दिन को ही घोर अन्धकार वाली रात नहीं बना लेता? जिसने आकाश में विद्यमान वास्तविक सूर्य को कभी न देखा हो, वह गड्ढे में दिखायी देने वाले सूर्य के प्रतिबिम्ब को ही वास्तविक सूर्य क्यों न मान ले? उसके लिये तो जिस समय तक जल से भरा हुआ गड्ढा रहता है, उस समय तक सूर्य भी रहता है। यदि वह गड्ढा नहीं रहा तो सूर्य भी नहीं रहा। केवल यही नहीं, यदि उस गड्ढे का जल हिलने लगा तो वह समझ लेता है कि सूर्य भी हिल-डुल रहा है। सोया हुआ व्यक्ति जब तक नहीं जागता, तब तक उसे स्वप्न ही सच्चा जान पड़ता है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः