ज्ञानेश्वरी पृ. 711


श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

इस प्रकार हे वीर शिरोमणि! यद्यपि वायु की समस्त क्रियाएँ एकरूप ही हैं, पर रीतिभेद के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न नाम प्राप्त होते हैं और यही भिन्न-भिन्न रीतियों से भिन्न रूप होने वाली वायु शक्ति कर्मों का चौथा कारण है। शरद् ऋतु षड्-ऋतुओं में सर्वोत्तम होती है और उस ऋतु का चन्द्रमा और भी मनोहारी होता है और उसमें भी पूर्णिमा के चन्द्रमा की मनोहरता की बात ही क्या है! इसी प्रकार वसन्त-ऋतु में उद्यान की अत्यधिक शोभा होती है और यदि ऐसे उद्यान में प्रियजनों की संगति हो तो फिर क्या पूछना! यदि इस प्रकार की संगति में प्रेमपूर्ण उपचार भी मिले तो फिर उस सुख का पारावार ही नहीं रह जाता अथवा हे पाण्डव! एक तो कमल हो, दूसरे वह पूर्णरूप से विकसित हो और तिस पर भी सुगन्धित परागकण का आधिक्य हो तो फिर शोभा की भला कौन-सी कमी रह सकती है? एक तो पहले ही मृदु वाणी हो, तिस पर उसमें कवित्व का मेल हो और फिर उस कवित्व को रसिकता की संगति मिली हुई हो तथा उस रसिकता में भी परमार्थ तत्त्व की लालसा हो और इस प्रकार का अप्रतिम योग उपस्थित हो तो वह कितना सुन्दर होता है! ठीक इसी प्रकार एक बुद्धि ही अन्तःकरण की समस्त वृत्तियों में सर्वश्रेष्ठ है तथा इन्द्रियों के आवेश से वह और भी अधिक तेजस्वी हो जाती है और उन इन्द्रियों के आवेश में उनके अधिदेवताओं का मण्डल और भी अधिक शोभादायक होता है। चक्षु इत्यादि दसों इन्द्रियों के पीछे उन्हें अपने अनुग्रह से बल प्रदान करने वाले सूर्य इत्यादि देवताओं का मण्डल होता है। हे अर्जुन, इसी देवता-मण्डल को कर्मों का पाँचवाँ कारण कहते हैं।” बस, यही श्रीकृष्णदेव ने अर्जुन से कहा था। तदनन्तर उन्होंने फिर कहा-“इस प्रकार मैंने समस्त कर्मों के मूल कारणों का तुम्हारे समक्ष इस तरह से निरूपण किया है कि सारी बातें तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ जायँ और यह निरूपण तुमने भली-भाँति सुन ही लिया है। अब इन्हीं मूल कारणों का विस्तार होता है और जिन पाँच हेतुओं के कारण कर्मसृष्टि की रचना होती है, उन हेतुओं का अब मैं स्पष्ट विवेचन करता हूँ।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (315-353)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः