ज्ञानेश्वरी पृ. 709

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम् ॥14॥

वैसे ही कर्मों के इन पाँच कारणों का वर्णन उनके पृथक्-पृथक् लक्षणों सहित सुनो। इन पाँचों कारणों में ‘देह’ प्रथम कारण है। इसे ‘अधिष्ठान कारण’ के नाम से पुकारते हैं, क्योंकि इस देह में भोक्ता अपने भोग्य विषयों के साथ डेरा डाले रहता है। इन्द्रियाँ अहर्निश कष्ट करती रहती हैं और उनके द्वारा प्रकृति के सामर्थ्य से जो सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं, उन्हें भोगने के लिये पुरुष के पास इस देह के अलावा अन्य कोई स्थान ही नहीं होता और यही कारण है कि इस देह को ‘अधिष्ठान’ नामसे पुकारते हैं। यह देह चौबीस तत्त्वों के एक साथ मिलकर रहने का साझे का घर है। इसी देह में बन्ध और मोक्ष के झंझटों का समाधान भी होता है। यही जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं का भी आधार स्थल है;

इसलिये हे पार्थ, इस देह का अधिष्ठान नाम पड़ा है। ‘कर्ता’ कर्म का दूसरा कारण है। इसी कर्ता को चैतन्य का प्रतिबिम्ब कहते हैं। जलवृष्टि का कार्य आकाश ही करता है तथा उस जल से जमीन पर ताल इत्यादि बनते हैं और फिर उसी ताल में आकाश प्रतिबिम्बित होता है अथवा कभी-कभी निद्रावस्था में राजा स्वयं को ही भुला बैठता है और तब उसे स्वप्नावस्था में यह अनुभव होता है कि मैं रंक हो गया हूँ। ठीक इसी प्रकार चैतन्य भी आत्मस्वरूप की स्मृति को भुला बैठता है और तब उसमें देहाभास उत्पन्न होता है। फिर जो चैतन्य देहाभिमान के कारण नाना प्रकार का अभिनय करता है और जिसे आत्मस्वरूप की विस्मृति हो जाने के कारण जीव का नाम मिलता है और जो सभी बातों में देह के संग रहने का संकल्प कर चुका होता है और जो भ्रम के वशीभूत होकर यह कहता फिरता हैं कि प्रकृति के द्वारा होने वाले समस्त कर्म मेरे ही द्वारा हुए हैं, इस प्रकरण में उस जीवात्मा को ही कर्ता नाम से सम्बोधित किया गया है। फिर जैसे एकस्वरूप रहने वाली दृष्टि बरौनी के बालों के कारण चौरी की भाँति सब जगह से फटी हुई दृष्टिगत होती है अथवा गृह में प्रज्वलित एक ही दीपक का प्रकाश बाहर से भिन्न-भिन्न गवाक्ष-मार्गों से (झरोखों से) देखने पर पृथक्-पृथक् जान पड़ता है अथवा एक ही आदमी श्रृंगार इत्यादि नौ रसों से क्रम-क्रम से उल्लसित होने पर जैसे वृत्ति-भेद से नौ प्रकार का भासित होने लगता है, ठीक वैसे ही बुद्धि की जानने की सामर्थ्य यद्यपि एकस्वरूप ही है, पर फिर भी वह श्रवणेन्द्रिय इत्यादि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों से प्रकट होती है। ‘पृथग्विधकरण’ इसी का नाम है। हे अर्जुन, कर्मों का यह तीसरा कारण है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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