ज्ञानेश्वरी पृ. 708

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्षसंन्यास योग

इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने संतोषपूर्वक कहा-“ऐसे प्रश्नों के उत्तर सुनने के लिये तुम्हारी तरह धरना देकर बैठने वाला श्रोता भला मिलता ही कहाँ है? इसीलिये हे अर्जुन! अब मैं तुमको उन समस्त बातों को बतलाता हूँ जो-जो मैंने तुम्हें बतलाने के लिये कही हैं; पर इन सब बातों के कारण तुम्हारे ऊपर लदा हुआ प्रेम का बोझ पहले से और भी गुरुतर हो जायगा।” यह सुनकर अर्जुन ने कहा कि हे देव! जान पड़ता है कि आप अपनी पहली बात भूल गये। इस प्रेम के लिये ही तो आप ‘मैं’ तथा ‘तुम’ वाला व्यक्ति-भाव रखते हैं। इस पर भगवान् ने कहा-“वास्तव में क्या ऐसी बात है? तो फिर मैंने जो वचन तुम्हें दिया है, वह अब मैं पूरा करता हूँ। तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

हे धनुर्धर! यह सत्य है कि समस्त कर्म उन्हीं पाँच कारणों से सम्पन्न होते हैं और आत्मा को किसी कर्म के होने का पता भी नहीं चलता और इन पाँचों कारणों के मेल से कर्मों को जो आकार मिलता है, उसके हेतु भी पाँच ही हैं। इन सबसे भिन्न जो आत्मतत्त्व है, वह सिर्फ उदासीन बना रहता है। वह न तो हेतु ही है, न निमित्त कारण ही है और न कर्मों की सिद्धि के लिये स्वयं कोई प्रयत्न ही करता है। जैसे आकाश में अहर्निश होते हैं, ठीक वैसे ही आत्मा में भी शुभाशुभ कर्म होते रहते हैं। जिस समय जल, तेज और धूम्र का वायु के साथ मेल होता है, उस समय आकाश में मेघ उत्पन्न होते हैं; पर आकाश को उनका पता भी नहीं चलता। नाव लकड़ी से बनती है, उसे पानी में नाविक खेता है तथा हवा उस नौका को चलाती है; परंतु पानी एकमात्र साक्षी भाव से तटस्थ रहता है। मृत्तिका कहीं से उठाकर ले आते हैं तथा उससे बर्तन बनते हैं और डंडे के सहयोग से चाक को घुमाया जाता है तथा उनके साथ-ही-साथ बर्तन भी घूमते रहते हैं; पर इन सबका कर्तृत्व कुम्भकार में होता है। इन समस्त चीजों को पृथ्वी का आश्रय तो अवश्य मिलता है, पर उस आश्रय के सिवा क्या कभी पृथ्वी का और भी कुछ खर्च होता है? इन सब बातों का अब तुम्हीं विचार करो। इस विषय में मैं एक और उदाहरण देता हूँ, सुनो

सूर्य के प्रकाश में लोगों के नाना प्रकार के व्यापार चलते रहते हैं; पर क्या उन समस्त व्यापारों का सूर्य के साथ भी कभी कोई सम्पर्क होता है? ठीक इसी प्रकार जिस समय पाँच हेतुओं का योग होता है, उस समय उन पाँच कारणों से कर्म-लताएँ लगती हैं; पर आत्मा उन सबसे सदा भिन्न ही रहती है। अब मैं इन पाँचों कारणों के पृथक्-पृथक् लक्षण बतलाता हूँ। जैसे भिन्न-भिन्न मौक्तिक पृथक्-पृथक् तौल कर लिये जाते हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (278-314)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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