श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
सम्भव है कि वे पाँचों कारण तुम्हें भी ज्ञात होंगे, क्योंकि उनका विवेचन शास्त्रों ने हाथ उठा-उठाकर किया है। वेद राजा की राजधानी में सांख्य वेद के मन्दिर में तत्त्व-निरूपणरूपी डंके की ध्वनि में उसकी गर्जना हो रही है। जैसे संसार के समस्त कर्मों के होने के मूल हेतु यही कारण होते हैं, वैसे ही आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध नहीं लगाना चाहिये। हे किरीटी! इस प्रकार इन पाँचा कारणों का डंका बजाने से इनकी प्रसिद्धि हुई है। अत: मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि इन कारणों को तुम भी सुन लो तो तुम्हारे लिये बहुत ही अच्छा है और जब तुम्हारे हाथ मुझ-जैसा ज्ञानरत्न लगा है, तो फिर भला इसकी क्या जरूरत है कि उन कारणों का तुम्हें अन्य किसी के द्वारा ज्ञान हो? यदि सम्मुख दर्पण पड़ा हो तो फिर दूसरों से यह पूछने की क्या जरूरत है कि मैं देखने में कैसा हूँ और इस प्रकार दूसरे व्यक्तियों की आँखों को इतना अधिक महत्त्व क्यों प्रदान किया जाय? मेरा भक्त इस हेतु से जिस तरफ दृष्टिपात करता है, मैं भी उसी तरफ उसके हेतु का स्वरूप धारण करके पहुँच जाता हूँ। मैं इस प्रकार का भक्तवत्सल अब तुम्हारे हाथ का खिलौना बन रहा हूँ।” प्रेमावेश इस प्रकार बातें करते-करते भगवान् स्वयं में खो गये और अर्जुन तो मानो आनन्दसागर में डूब ही गया। जैसे चाँदनी की वृष्टि हो रही हो और उसके कारण चन्द्रकान्तमणि का पर्वत पसीजकर सरोवर बन जाय, ठीक वैसे ही सुख और आत्मप्रत्यय के मनोभावों के बीच का पर्दा विनष्ट हो जाने के कारण अर्जुन एकमात्र सुख की प्रतिमूर्ति ही बन गया था। भगवान् तो समस्त चीजों में समर्थ थे, अत: ऐसे अवसर पर वे फिर पूर्व की भाँति प्रकृतिस्थ हो गये और सुखरूपी सागर में डूबते हुए अर्जुन को बचाने के लिये शीघ्रता से दौड़ पड़े। उस समय की सुख की इतनी तेज बाढ़ आयी थी कि उसमें अर्जुन सदृश बड़े-बड़े धीर-वीर भी अपनी बुद्धिसहित डूब सकते थे परन्तु श्रीकृष्ण देव ने उस बाढ़ को खींच लिया और कहा कि हे पार्थ! तुम अपना आत्मस्वरूप मत भूलो। |
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