श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे कोई साहूकार किसी ऋणी के पास उसके वादे पर अपना ऋण वसूल करने के लिये आता है और उस समय ऋणी व्यक्ति बिना उसे ऋण चुकाये किसी तरह अपना बचाव नहीं कर सकता, ठीक वैसे ही कोई मनुष्य इन कर्मफलों के भोग से भी किसी प्रकार नहीं बच सकता। जैसे ज्वार की बाल में से निकलकर जमीन पर गिरे हुए दाने फिर ज्वार ही उत्पन्न करते हैं और फिर उस ज्वार के दाने जमीन पर गिरते हैं; वे भी फिर वही ज्वार उत्पन्न करते हैं; ठीक वैसे ही जीव जिस काल में एक फल भोगता है, तब वह साथ ही अन्य अनेक कर्मफल भी उत्पन्न करता रहता है। जैसे चलने के समय प्रत्येक पग पिछले पग से आगे ही पड़ता है अथवा नदी को पार करने के लिये हम उसके जिस किनारे पर पहुँचते हैं, वह किनारा ‘इस पार’ होता है और सामने वाला दूसरा किनारा ‘उस पार’ होता है तथा हमें उस पार जाना ही पड़ता है और अनवरत इस पार से उस पार करना पड़ता है, ठीक वैसे ही कर्मफल के भोग का भी कहीं अवसान नहीं होता। साध्य-साधन के निमित्त से फलभोग का बराबर विस्तार ही होता जाता है और इस प्रकार फलाशा का परित्याग न करने वाले जीव संसाररूपी जाल में और भी अधिक उलझते जाते हैं। चमेली की कलियाँ प्रस्फुटित तो होती हैं, पर प्रस्फुटन के साथ-ही-साथ उनका सूखना भी आरम्भ हो जाता है। ठीक इसी प्रकार जो लोग कर्म के निमित्त बनते हैं, पर स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप नहीं करते और जो लोग कर्मफल का त्याग करके कर्मों का ठीक वैसे ही नाश कर देते हैं, जैसे बीज के निमित्त सुरक्षित धान्य भोजन के काम में लाने से कृषि-कार्य प्रभावित हो जाता है, वे लोग सत्त्व शुद्धि के बल से गुरुकृपारूपी अमृत-तुषार से लबालब भरे हुए आत्मबोध से परिपूर्ण हो जाते हैं और उनकी द्वैतरूपी दीनता समाप्त हो जाती है। फिर जगत् भ्रम के निमित्त से भासित होने वाले त्रिविध फल विनष्ट हो जाते हैं और उस दशा में भोक्ता तथा भोग का भी लोप हो जाता है। |
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