ज्ञानेश्वरी पृ. 702

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥12॥

हे धनंजय! वास्तव में कर्मफल त्रिविध हैं और जो कर्मफल की आशा का परित्याग नहीं करता, उसी को कर्म के फल भोगने पड़ते हैं। कन्या को जन्म देने वाला उसका पिता यह कहकर अपनी उस कन्या को दूसरे को दान कर देता है कि यह मेरी नहीं है और इस प्रकार वह पिता अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है और उस कन्या का ग्रहीता उसका जामाता जंजाल में फँस जाता है। जहरीली वनस्पतियाँ उत्पन्न करने वाले लोग उन वनस्पतियों को दूसरे के हाथ बेच देते हैं और स्वयं उनसे धनार्जन करके सुखपूर्वक जीवनयापन करते हैं; पर जो लोग उन वनस्पतियों को खरीदकर उनका सेवन करते हैं, वही अपने प्राण गँवा बैठते हैं। ठीक इसी प्रकार कर्ता भले ही समस्त कर्म सम्पादित करे, पर यदि वह अपने मन में उन कर्मों के फलों की आशा न रखे तो वह अकर्ता ही रहता है और इन दोनों बातों को केवल कर्म बाँध नहीं सकते। मार्ग में स्थित वृक्षों के फल उन्हीं लोगों के हाथ लगते हैं जो उन्हें पाने की लालसा करते हैं। ठीक इसी प्रकार कर्मफल भी उन्हीं लोगों को मिलते हैं जो उन्हें पाने की अभिलाषा करते हैं। परन्तु कर्मों का आचरण करके भी जो उनके फल ग्रहण नहीं करता, वही इस संसार-चक्र में कभी नहीं फँसता; क्योंकि यह सम्पूर्ण त्रिविध संसार कर्मों का ही फल है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः