ज्ञानेश्वरी पृ. 700

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥10॥

यही कारण है कि प्रारब्धानुसार मनुष्य को जो अच्छे और बुरे कर्म प्राप्त होते हैं, वे ज्ञानी व्यक्तियों के लिये वैसे ही नष्ट हो जाते हैं जैसे आकाश में मेघ लुप्त हो जाते हैं। इसके अलावा हे पार्थ, इस प्रकार के व्यक्ति की दृष्टि के समक्ष वर्तमान कर्म भी निर्मल होते हैं और यही कारण है कि वह सुख-दुःख के झमेलों में नहीं फँस सकता। उसके लिये यह बात कभी हो ही नहीं सकती कि वह कर्मों को शुभ समझकर आनन्दपूर्वक उनका आचरण करे अथवा यह समझकर कि कर्मों का परिणाम दुःखद होता है, उनके साथ द्वेष करे। जैसे स्वप्नावस्था में अनुभव किये जाने वाले सुख-दुःख का हर्ष अथवा शोक कोई व्यक्ति जाग्रत् होने पर कभी नहीं करता, ठीक वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति भी इस मायाजन्य विश्वमोह में होने वाले कर्मों के इष्ट और अनिष्ट परिणामों के विषय में उदासीन रहता है। इसीलिये हे पाण्डुसुत! जिस त्याग में कर्म और कर्ता वाली द्वैतभावना की गन्ध लेशमात्र भी नहीं होती उसी का नाम सात्त्विक त्याग है। हे अर्जुन! यदि इस प्रकार कर्मों का त्याग किया जाय, तभी वास्तव में कर्मों का त्याग हो सकता है, अन्यथा यदि किसी अन्य प्रकार से कर्मों का त्याग किया जाय तो वे और भी अधिक बन्धक हुए बिना नहीं रहते।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (212-217)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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