श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
संजय उवाच तब संजय ने कहा-पाण्डव सेना ने इस प्रकार उठाव (यानी अपनी सेना का प्रदर्शन) किया, जिस प्रकार महाप्रलय के समय कृतान्त (महाकाल) अपना मुँह फैलाता है। वह अत्यन्त विशाल सेना उसी प्रकार एक साथ ही उत्तेजित हो गयी। (उसे कौन रोक सकता था?), जिस प्रकार ‘कालकूट’ नामक विष क्षुब्ध होकर सर्वत्र फैल जाता है। फिर भला उसे कौन शमन कर सकता था! अथवा अनेक पंक्तियों की व्यूह-रचना से युक्त वह दुर्धर्ष सेना उस समय उसी प्रकार भयानक जान पड़ती थी, जिस प्रकार महाप्रलय काल की वायु से पुष्ट बड़वाग्नि उग्र होकर समुद्र के जल का शोषण करते हुए आकाश तक को छूता है; परन्तु दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर उसी प्रकार नगण्य समझा, जिस प्रकार गज-शावक को सिंह तुच्छ समझता है। इसके बाद दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास पहुँचकर कहने लगा-“आपने देखा कि पाण्डवों की सेना कैसे आवेश में आयी हुई है? उस सेना के विविध व्यूह चलते-फिरते गिरि-दुर्ग ही जान पड़ते हैं। ये व्यूह उस द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न के बनाये हुए हैं। हे आचार्य! जिसे आपने अपनी विद्या का आश्रय-स्थान (अर्थात शक्ति संपन्न) बनाया है। देखिये उसी द्रुपद-पुत्र ने पाण्डवों की सेनारूपी समुद्र का कैसा विस्तार किया है![1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (88-95)
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