ज्ञानेश्वरी पृ. 694

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

स्वर्ण में जब एक के बाद एक इस प्रकार क्षारों के अनेक पुट दिये जाते हैं तब उसमें मिश्ति अशुद्ध अंश निरन्तर जलता जाता है तथा स्वर्ण एकदम शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार जिन कर्मों का सम्पादन निष्ठापूर्वक किया जाता है, वे रज तथा तम को एकदम मिटा देते हैं और शुद्ध सत्त्वरूपी मन्दिर को दृष्टि के क्षेत्र में ले आते हैं इसीलिये हे धनंजय! कर्म भी उसी योग्यता पथा पद पर आसीन हो गये हैं, जिस योग्यता तथा पद पर सत्त्वशुद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) करने वाले पवित्र तीर्थ हैं। तीर्थों से तो बाह्य मल का नाश होता है और कर्म आन्तरिक मल का प्रक्षालन करते हैं। इसीलिये यह कहा जाता है कि तीर्थों को जो पवित्रता प्राप्त होती है, उसमें एकमात्र कारण सत्कर्म ही हैं। जैसे किसी पिपासित व्यक्ति के लिये मरुस्थल क्षेत्र में ग्रीष्म काल में चलने वाली लू ही अमृतवृष्टि करके उस अमृतपान करा दे अथवा जैसे किसी नेत्रविहीन व्यक्ति के नेत्रों में सूर्य का तेज आ जाय; नदी में डूबते हुए व्यक्ति को बचाने के लिये स्वयं नदी ही दौड़ पड़े अथवा किसी मरने वाले व्यक्ति को स्वयं मृत्यु ही दीर्घायु प्रदान करे, ठीक वैसे ही हे पाण्डुसुत! ये कर्म ही मोक्ष चाहने वाले व्यक्तियों को कर्मबन्धन से छुड़ाते हैं। जैसे रसायन का सेवन मरने वाले को विष से बचाता है, वैसे ही हे धनंजय! इन कर्मों की भी यह एक अद्भुत युक्ति हाथ लगी है कि अपना बन्धकत्व विनष्ट करने के लिये स्वयं ही मुख्य साधन होते हैं। हे किरीटी! अब मैं तुम्हें उस युक्ति के सम्बन्ध में बतलाता हूँ जिससे कर्मों के द्वारा ही स्वयं कर्म का नाश होता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (149-165)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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