ज्ञानेश्वरी पृ. 693

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: संप्रकीर्तित: ॥4॥

हे पाण्डव! त्याग भी त्रिविध हैं। अब मैं इन त्रिविध त्यागों के पृथक्-पृथक् लक्षण बतलाता हूँ। यद्यपि मैंने तुम्हें यह बतलाया है कि त्याग त्रिविध हैं, तो भी उन सबका तात्पर्य वही है जो मैंने अभी कहा है। मैं सर्वज्ञ हूँ तथा मेरी बुद्धि को जो तत्त्व निश्चित जान पड़ता है, सर्वप्रथम तुम वही तत्त्व सुनो। जो मुमुक्षु अपने मोक्ष-सम्बन्ध में जाग्रत् और सचेत रहना चाहता हो, उसे त्याग का यह रहस्य समझकर तदनुसार अपना आचरण रखना चाहिये। बस, इतने से ही उसे मोक्ष की उपलब्धि हो जायगी।[1]


यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥5॥

पथिक को जैसे मार्ग में चलते समय पैर बढ़ाना रोकना नहीं चाहिये, ठीक वैसे ही व्यक्ति को यज्ञ, दान तथा तप इत्यादि जो आवश्यक कर्म हैं उन्हें कभी बन्द नहीं करना चाहिये। जैसे खोयी हुई वस्तु को निरन्तर उस समय तक खोजते रहना चाहिये, जिस समय तक वह प्राप्त न हो जाय, परोसी गयी थाली उस समयतक अपने सामने से हटानी नहीं चाहिये, जिस समय तक पेट न भर जाय अथवा तट पर पहुँचने से पूर्व कभी नौका का परित्याग नहीं करना चाहिये अथवा फल लगने से पूर्व कदली-वृक्ष नहीं काटना चाहिये; उस समय तक दीपक नहीं बुझाना चाहिये जिस समय तक रखी हुई वस्तु प्राप्त न हो जाय, ठीक वैसे ही उस समय तक यज्ञादि कर्मों की ओर से कभी उदासीन नहीं होना चाहिये जिस समय तक आत्मज्ञान के विषय में बुद्धि को पूर्णतया निश्चय न हो जाय। समस्त लोगों को अपने-अपने अधिकारानुसार यज्ञ, दान और तप इत्यादि कर्मों का अनुष्ठान बहुत ही तत्परतापूर्वक करने चाहिये। यदि पथिक रास्ता चलते समय अपने पैर जल्दी-जल्दी उठाता है तो वह अतिशीघ्र ही उद्दिष्ट स्थान तक पहुँचकर विश्राम कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कर्मों का पूरी तरह से आचरण करने से व्यक्ति को सहज में निष्कामता प्राप्त हो सकती है। ज्यों-ज्यों औषधि-सेवन करने में गम्भीरता दिखायी जाती है, त्यों-त्यों व्याधि भी मिटती जाती है। ठीक इसी प्रकार ज्यों-ज्यों ये समस्त कर्म शीघ्रता तथा तत्परतापूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं, त्यों-त्यों रज और तम का भी उन्मूलन होता जाता है।

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (145-148)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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