श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे पाण्डव! त्याग भी त्रिविध हैं। अब मैं इन त्रिविध त्यागों के पृथक्-पृथक् लक्षण बतलाता हूँ। यद्यपि मैंने तुम्हें यह बतलाया है कि त्याग त्रिविध हैं, तो भी उन सबका तात्पर्य वही है जो मैंने अभी कहा है। मैं सर्वज्ञ हूँ तथा मेरी बुद्धि को जो तत्त्व निश्चित जान पड़ता है, सर्वप्रथम तुम वही तत्त्व सुनो। जो मुमुक्षु अपने मोक्ष-सम्बन्ध में जाग्रत् और सचेत रहना चाहता हो, उसे त्याग का यह रहस्य समझकर तदनुसार अपना आचरण रखना चाहिये। बस, इतने से ही उसे मोक्ष की उपलब्धि हो जायगी।[1]
पथिक को जैसे मार्ग में चलते समय पैर बढ़ाना रोकना नहीं चाहिये, ठीक वैसे ही व्यक्ति को यज्ञ, दान तथा तप इत्यादि जो आवश्यक कर्म हैं उन्हें कभी बन्द नहीं करना चाहिये। जैसे खोयी हुई वस्तु को निरन्तर उस समय तक खोजते रहना चाहिये, जिस समय तक वह प्राप्त न हो जाय, परोसी गयी थाली उस समयतक अपने सामने से हटानी नहीं चाहिये, जिस समय तक पेट न भर जाय अथवा तट पर पहुँचने से पूर्व कभी नौका का परित्याग नहीं करना चाहिये अथवा फल लगने से पूर्व कदली-वृक्ष नहीं काटना चाहिये; उस समय तक दीपक नहीं बुझाना चाहिये जिस समय तक रखी हुई वस्तु प्राप्त न हो जाय, ठीक वैसे ही उस समय तक यज्ञादि कर्मों की ओर से कभी उदासीन नहीं होना चाहिये जिस समय तक आत्मज्ञान के विषय में बुद्धि को पूर्णतया निश्चय न हो जाय। समस्त लोगों को अपने-अपने अधिकारानुसार यज्ञ, दान और तप इत्यादि कर्मों का अनुष्ठान बहुत ही तत्परतापूर्वक करने चाहिये। यदि पथिक रास्ता चलते समय अपने पैर जल्दी-जल्दी उठाता है तो वह अतिशीघ्र ही उद्दिष्ट स्थान तक पहुँचकर विश्राम कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कर्मों का पूरी तरह से आचरण करने से व्यक्ति को सहज में निष्कामता प्राप्त हो सकती है। ज्यों-ज्यों औषधि-सेवन करने में गम्भीरता दिखायी जाती है, त्यों-त्यों व्याधि भी मिटती जाती है। ठीक इसी प्रकार ज्यों-ज्यों ये समस्त कर्म शीघ्रता तथा तत्परतापूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं, त्यों-त्यों रज और तम का भी उन्मूलन होता जाता है। |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (145-148)
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