श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं जिनके अन्तःकरण से फल की लालसा कभी दूर ही नहीं होती और यही कारण है कि वे लोग समस्त कर्मों को बन्धनकारक कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति स्वयं नग्न होकर नृत्य करता है तथा पूरे संसार को लड़ाका कहता फिरता है अथवा हे धनंजय! जैसे वह व्याधिग्रस्त व्यक्ति समस्त अन्नों की शिकायत करता है, जिसकी जिह्वा की चाट कभी तृप्त नहीं होती अथवा जैसे कुष्ठ रोग से ग्रसित व्यक्ति स्वयं अपने दोषयुक्त देह से न चिढ़कर उस पर भनभनाने वाली मक्खियों पर चिढ़ता है, ठीक वैसे ही जो दुर्बल लोग फल की कामना में उलझे रहते हैं, वे फलों का त्याग करने में सक्षम न होने के कारण समस्त कर्मों को ही बुरा-भला बतलाते हैं और यह निर्णय कर लेते हैं की सम्पूर्ण कर्मों का ही सम्यक् त्याग करना चाहिये। बहुतेरे लोग (पूर्व मीमांसक) ऐसे भी होते हैं जो यह कहते फिरते हैं कि यज्ञ इत्यादि कर्म अवश्य करने चाहिये, क्योंकि इनके अतिरिक्त चित्त शुद्धि करने वाली अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। यदि चित्त शुद्धि वाला मार्ग शीघ्रता से अतिक्रमण करने की अभिलाषा हो, तो कर्मरूपी शस्त्र को चलाने में आलस्य नहीं करना चाहिये। यदि स्वर्ण को शुद्ध करना हो तो जैसे अग्नि का कष्ट सहन करने के लिये तैयार होना चाहिये और जैसे दर्पण को स्वच्छ करने हेतु उसमें बहुत-सी राख लगानी चाहिये अथवा यदि वस्त्र को स्वच्छ करना हो तो रजक की नाद को दूषित नहीं समझना चाहिये, ठीक वैसे ही कर्मों की इसीलिये अवहेलना नहीं करनी चाहिये कि वे दुःख का कारण होते हैं। क्या बिना पकाये कभी स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो सकता है? हे पार्थ! कुछ लोग इसी प्रकार की बातें कहकर कर्माचरण की ओर ध्यान देते हें और इसी प्रकार के मतभेद के कारण त्याग का विषय संदिग्ध हो गया है। अत: अब मैं इस प्रकार स्पष्टीकरण करता हूँ जिससे वह संशय मिट जाय तथा त्याग के विषय में निश्चित निर्णय किया जा सके। तुम इस स्पष्टीकरण को ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (135-144)
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