ज्ञानेश्वरी पृ. 692

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग


त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥3॥

बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं जिनके अन्तःकरण से फल की लालसा कभी दूर ही नहीं होती और यही कारण है कि वे लोग समस्त कर्मों को बन्धनकारक कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति स्वयं नग्न होकर नृत्य करता है तथा पूरे संसार को लड़ाका कहता फिरता है अथवा हे धनंजय! जैसे वह व्याधिग्रस्त व्यक्ति समस्त अन्नों की शिकायत करता है, जिसकी जिह्वा की चाट कभी तृप्त नहीं होती अथवा जैसे कुष्ठ रोग से ग्रसित व्यक्ति स्वयं अपने दोषयुक्त देह से न चिढ़कर उस पर भनभनाने वाली मक्खियों पर चिढ़ता है, ठीक वैसे ही जो दुर्बल लोग फल की कामना में उलझे रहते हैं, वे फलों का त्याग करने में सक्षम न होने के कारण समस्त कर्मों को ही बुरा-भला बतलाते हैं और यह निर्णय कर लेते हैं की सम्पूर्ण कर्मों का ही सम्यक् त्याग करना चाहिये। बहुतेरे लोग (पूर्व मीमांसक) ऐसे भी होते हैं जो यह कहते फिरते हैं कि यज्ञ इत्यादि कर्म अवश्य करने चाहिये, क्योंकि इनके अतिरिक्त चित्त शुद्धि करने वाली अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। यदि चित्त शुद्धि वाला मार्ग शीघ्रता से अतिक्रमण करने की अभिलाषा हो, तो कर्मरूपी शस्त्र को चलाने में आलस्य नहीं करना चाहिये। यदि स्वर्ण को शुद्ध करना हो तो जैसे अग्नि का कष्ट सहन करने के लिये तैयार होना चाहिये और जैसे दर्पण को स्वच्छ करने हेतु उसमें बहुत-सी राख लगानी चाहिये अथवा यदि वस्त्र को स्वच्छ करना हो तो रजक की नाद को दूषित नहीं समझना चाहिये, ठीक वैसे ही कर्मों की इसीलिये अवहेलना नहीं करनी चाहिये कि वे दुःख का कारण होते हैं। क्या बिना पकाये कभी स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो सकता है? हे पार्थ! कुछ लोग इसी प्रकार की बातें कहकर कर्माचरण की ओर ध्यान देते हें और इसी प्रकार के मतभेद के कारण त्याग का विषय संदिग्ध हो गया है। अत: अब मैं इस प्रकार स्पष्टीकरण करता हूँ जिससे वह संशय मिट जाय तथा त्याग के विषय में निश्चित निर्णय किया जा सके। तुम इस स्पष्टीकरण को ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (135-144)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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