ज्ञानेश्वरी पृ. 684

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

उसमें जो धर्म, अर्थ तथा कामरूपी बहुत-से कंकड़, पत्थर और मिट्टी इत्यादि निकले थे; उन्हीं से उन्होंने उस भूमि के चतुर्दिक् महाभारतरूपी पर कोटा तैयार किया था। उसी परकोटे में कृष्ण-अर्जुन संवाद के कौशल से अखण्ड आत्मज्ञानरूपी शिला को स्वच्छ और सुन्दर किया। फिर निवृत्तिरूपी डोरियाँ तानकर और समस्त शास्त्रों के अर्थों का मसाला डालकर मोक्ष-रेखा की नींव अथवा तलसीमा सुनिश्चित की गयी। इस प्रकार मकान का काम चलते-चलते पन्द्रह अध्यायों तक मकान की पन्द्रह मंजिलें अथवा खण्ड पूरे हो गये तथा अध्यात्म-मन्दिर निमार्ण की प्रक्रिया सम्पन्न हो गयी।

तदनन्तर, सोलहवें अध्याय में उस मन्दिर का शिखर बना तथा सत्रहवें अध्याय में कलश का आधार बनाया गया और उसी पर यह अठारहवाँ अध्याय मानो कलश के रूप में स्थापित किया गया। इसी कलश पर श्रीव्यास जी की गीता नाम की ध्वजा फहराती रहती है। इसीलिये पूर्व के समस्त अध्याय एक-पर-एक चढ़ने वाली मंजिलों के आकार हैं तथा उन सबकी पूर्णता इस अठारहवें अध्याय में दृष्टिगोचर होती है। भवन के जितने काम सम्पन्न हुए रहते हैं, उसे गुप्त न रखकर कलश उसे अनवरत प्रकट करता रहता है। ठीक इसी प्रकार प्रस्तुत अध्याय भी गीता को आरम्भ से अन्त तक प्रज्वलित तथा प्रकट करता है। इस प्रकार श्रीव्यास ने इस गीतारूपी मन्दिर को पूर्णता के शिखर पर पहुँचाकर जीवों का नाना प्रकार से संरक्षण किया है। इस मन्दिर की प्रदक्षिणा कुछ लोग (आवर्तन के) जप के बहाने बाहर से ही करते हैं और कुछ लोग इसके श्रवण पर श्रद्धा रखकर इसकी छाया का सेवन करते हैं। कुछ लोग अर्थज्ञान के गर्भगृह में एकाग्रवृत्ति से ताम्बूल और दक्षिणा लेकर सहज ही प्रवेश करते हैं। यह तीसरे प्रकार के जीव तत्क्षण ही आत्म्स्वरूप श्रीहरि से जा मिलते हैं, फिर भी इस मोक्षरूपी मन्दिर में समस्त लोग प्रविष्ट हो सकते हैं। जैसे समर्थ व्यक्तियों के यहाँ भोजन हेतु ऊपर तथा नीचे बैठने वालों को भी एक समान समस्त भोज्य पदार्थ परोसे जाते हैं, वैसे ही इस गीता का पाठ करने वाले, सुनने वाले तथा अर्थ को ग्रहण करने वाले सारे लोग समानरूप से मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार समस्त बातों को ध्यान में रखकर ही मैंने यह कहा है कि यह गीताग्रन्थ वैष्णवों के लिये मन्दिर के रूप में है और यह अठारहवाँ अध्याय मन्दिर का उज्ज्वल कलश है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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