ज्ञानेश्वरी पृ. 682

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

समुद्र सदा अपनी मर्यादा में ही रहता है; पर यह नियम तभी तक है, जब तक पूर्ण चन्द्रोदय नहीं होता। चन्द्रकान्तमणि अपने अंग की आर्द्रता से चन्द्रमा को कभी अर्घ्य नहीं देती, पर स्वयं चन्द्रमा ही उससे यह कृत्य कराता है। वसन्त-ऋतु आते ही समस्त वृक्षों में नयी-नयी कोपलें निकल आती हैं; पर स्वयं उन वृक्षों को यह ज्ञात नही होता कि हममें ये नयी-नयी कोपलें कैसे निकल आयीं। सूर्य की रश्मियों का स्पर्श होते ही कमलिनी का संकोच लेशमात्र भी शेष नहीं रह जाता और जल का सम्पर्क होते ही लवण अपने शरीर की सुध-बुध खो देता है। ठीक इसी प्रकार हे गुरुदेव! जैसे ही आप मेरी स्मृतिपटल पर आते हैं वैसे ही मैं स्वयं को भुला बैठता हूँ। जी भरकर भोजन करके सन्तुष्ट होने वाला व्यक्ति खूब डकारें लेता है, ठीक वैसी ही स्थिति आपने मेरी कर दी है। मेरे अहंभाव को आपने मानो देशनिकाला कर दिया है और मेरी वाणी पर इस प्रकार का पागलपन सवार करा दिया है कि वह आपकी स्तुति करने लगी है। पर यदि अपने देह का भान रखकर भी आपकी स्तुति की जाय तो भी गुण तथा गुणातीत में भेदभाव करना ही पड़ता है; पर आप तो एकरसात्मक लिंग हैं, फिर गुण तथा गुणातीत में जिस प्रकार का भेद होता है वैसा भेद भला आप में कहाँ से हो सकता है! मोती को टुकड़े-टुकड़े करके फिर उसे जोड़ना अच्छा है अथवा उसे अखण्ड ही रखना अच्छा है? ठीक इसी प्रकार आपकी माता-पिता के रूप में कल्पना करके स्तुति करना ही समीचीन नहीं है, कारण कि उसमें संततिरूपी उपाधि का दोष आ जाता है। हे प्रभो! यदि मैं यह कल्पना करूँ कि मैं आपका सेवक हूँ, तो फिर आप में स्वामी के भाव का स्वतः आरोप हो जाता है, फिर ऐसी उपाधियों से दूषित वर्णन करने का अर्थ ही क्या हो सकता है? तथा ऐसी स्तुति से लाभ ही क्या हो सकता है? यदि मै। यह कहूँ कि आप ही आत्मस्वरूप हैं तो मानो आप-सरीखे ज्ञानदाता को मैं अपने अन्तःकरण से निकालकर बाहर कर देता हूँ। अत: हे गुरुराज! मुझे तो इस जगत् में ऐसा कोई सुभीता दृष्टिगोचर नहीं होता जिससे मैं आपकी स्तुति कर सकूँ।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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