ज्ञानेश्वरी पृ. 674

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया: ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥24॥

इस नाम के तीनों अक्षरों की कर्म के आरम्भ, मध्य तथा अन्त-इन तीनों स्थानों में योजना करनी चाहिये। हे किरीटी! इसी एक युक्ति की सहायता से ब्रह्मज्ञानियों को ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति हुई है। जो लोग शास्त्रों के ज्ञान के कारण कर्मनिष्ठ हो जाते हैं, वे ब्रह्म के साथ एकता पाने के लिये बिना यज्ञ इत्यादि कर्म सम्पादित किये नहीं रहते; पर आरम्भ काल में वे लोग ओंकार को अपने ध्यान में रखते हैं और तब वाणी से भी उसका उच्चारण करते हैं। ओंकार के ध्यान तथा उच्चारण के साथ वे लोग कर्म के मार्ग में प्रवृत्त होते हैं। जैसे अन्धकार में प्रवेश करते समय प्रज्वलित दीपक अथवा जंगल में जाते समय शक्तिशाली मनुष्य अपने संग रखना चाहिये, वैसे ही कर्मारम्भ करते समय प्रणव का आश्रय लेना चाहिये। ब्रह्मवेत्ता लोग अपने इष्ट देवता के उद्देश्य से धर्मार्जित नाना प्रकार के द्रव्य ब्राह्मणों के द्वारा अग्नि में आहुति के रूप में डलवाते हैं। वे लोग शास्त्र में बतायी गयी विधियों के अनुसार कुशलतापूर्वक आहवनीय इत्यादि तीनों अग्नियों में त्यागात्मक त्रिकालिक आहुति देकर यज्ञ-कर्म का आचरण करते हैं। वे नाना प्रकार के यज्ञों तथा यागों इत्यादि का अंगीकार करके इस मायाजन्य सांसारिक मोह का परित्याग करते हैं अथवा न्यायार्जित भूमि इत्यादि का दान उचित स्थान और काल में सत्पात्र को देते हैं अथवा एकान्तराट् भोजन का व्रत करते हैं, चान्द्रायण इत्यादि व्रत करते हैं और मास-मासपर्यन्त उपवास करके अपने शरीर की धातुओं को सुखाते हुए तपस्या करते हैं।

इस प्रकार जो यज्ञ, दान और तप इत्यादि कर्म जगत् में बन्धनकारक कहे जाते हैं, उन्हीं कर्मों को करने तथा उन्हीं के द्वारा ब्रह्म को जानने वाले लोग सहज में ही मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं। स्थल में जो लकड़ियाँ इत्यादि प्रतीत होती हैं, उन्हीं के सहयोग से हम लोग जैसे जल में तैरते हैं, वैसे ही इस नाम के सहयोग से लोग बन्धनकारक कर्मों से छुटकारा पाते हैं पर यह विस्तार बहुत हो चुका। इस प्रकार ये यज्ञ और दान इत्यादि क्रियाएँ ओंकार के सहयोग से हित करने वाली होती हैं। हे किरीटी! तुम यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जिस समय यह जान पड़ता है कि ये क्रियाएँ फल के निकट आ पहुँची हैं, उस समय तत् शब्द का प्रयोग किया जाता है।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (354-368)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः