श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
हे वीरेश! जो यज्ञ इसी प्रकार सांगोपांग सम्पन्न किया जाता है, पर जैसे श्राद्ध के दिन राजा को इस उद्देश्य से निमन्त्रण दिया जाता है कि यदि राजा हमारे घर पधारे तो उनका बहुत कुछ उपयोग होगा, जगत् में हमारी ख्याति भी हो जायगी तथा श्राद्ध में भी कोई कमी नहीं आयेगी और इसी प्रकार के उद्देश्य को ध्यान में रखकर जब यज्ञकर्ता अपने मन में यह कहता है कि यज्ञ से मुझे स्वर्ग की उपलब्धि होगी, यज्ञ में दीक्षित हो जाने के कारण जनता में मेरी मान-प्रतिष्ठा अधिक होगी तथा मेरे द्वारा यज्ञ भी सम्पन्न हो जायगा, आशय यह कि हे पार्थ! जो यज्ञ केवल फलाशा से तथा संसार में मान-बड़ाई और अपनी प्रसिद्धि के लिये किया जाता है, उस यज्ञ को राजस समझना चाहिये।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (185-188)
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