ज्ञानेश्वरी पृ. 659

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥12॥

हे वीरेश! जो यज्ञ इसी प्रकार सांगोपांग सम्पन्न किया जाता है, पर जैसे श्राद्ध के दिन राजा को इस उद्देश्य से निमन्त्रण दिया जाता है कि यदि राजा हमारे घर पधारे तो उनका बहुत कुछ उपयोग होगा, जगत् में हमारी ख्याति भी हो जायगी तथा श्राद्ध में भी कोई कमी नहीं आयेगी और इसी प्रकार के उद्देश्य को ध्यान में रखकर जब यज्ञकर्ता अपने मन में यह कहता है कि यज्ञ से मुझे स्वर्ग की उपलब्धि होगी, यज्ञ में दीक्षित हो जाने के कारण जनता में मेरी मान-प्रतिष्ठा अधिक होगी तथा मेरे द्वारा यज्ञ भी सम्पन्न हो जायगा, आशय यह कि हे पार्थ! जो यज्ञ केवल फलाशा से तथा संसार में मान-बड़ाई और अपनी प्रसिद्धि के लिये किया जाता है, उस यज्ञ को राजस समझना चाहिये।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (185-188)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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