ज्ञानेश्वरी पृ. 655

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥7॥

समस्त आहार तो एक ही हैं, पर हे वीर शिरोमणि! अब मैं तुमकों यह बतलाता हूँ कि वे त्रिविध किस तरह होते हैं। भोजन करने वाले की रुचि के अनुसार अन्न बनता है तथा भोजन करने वाला गुणों का दास बना रहता है। जो जीव कर्ता और भोक्ता होता है, वह त्रिगुणों के कारण स्वभावतः त्रिविध अर्थात् तीन प्रकार का होता है और यही कारण है कि वह तीन प्रकार से आचरण करता है। इसीलिये आहार भी तीन प्रकार का होता है। ठीक इसी प्रकार यज्ञ भी तीन प्रकार के होते हैं। तप और दान के व्यवहार भी त्रिविध ही होते हैं। अब मैं सर्वप्रथम आहार के लक्षण बतलाता हूँ। ये लक्षण बहुत ही सुगम करके बतलाये जायँगे, मन लगाकर सुनो।[1]


आयु: सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: ।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: ॥8॥

दैवयोगात् भोक्ता की प्रवृत्ति यदि सत्त्वगुण की ओर हो तो उसकी रुचि मधुर रस में बढ़ती है। जो खाद्य पदार्थ स्वभावतः सुरस, मधुर रस से परिपूर्ण तथा पके हुए होते हैं, जो बेढंगे आकार में नहीं होते, जो स्पर्श में अत्यन्त कोमल प्रतीत होते हैं तथा जिह्वा को उत्तम और स्वादिष्ट जान पड़ते हैं और जिनमें का द्रव-अंश अपने स्थान पर ही अग्नि के ताप से सूख जाता है, जो आकार और परिमाण की दृष्टि से देखने में छोटे ही होते हैं, पर जो अन्त में हितकारक होते हैं, जो गुरुमुख से निःसरित शब्दों की तरह अत्यल्प होने पर भी अपार समाधान करते हैं तथा जो अन्दर जाकर उदर के लिये भी उतने ही आनन्ददायक होते हैं, जितने वे खाने में मुख को मधुर लगते हैं, उन सब खाद्य वस्तुओं के प्रति सात्त्विक मनुष्यों की अत्यधिक रुचि रहती है। जो अन्न इस प्रकार के लक्षणों से युक्त हो, उसी को सात्त्विक जानना चाहिये। ऐसा अन्न अनवरत आयु की रक्षा करता है। इस प्रकार का सात्त्विक रसरूपी मेघ जब देह में अपनी वृष्टि करता है, तब आयुष्यरूपी नदी दिनोदिन वृद्धि को प्राप्त होती है। हे सुविज्ञ! जैसे दिन की वृद्धि का कारण दिवाकर होता है, वैसे ही सत्त्व को पोषण प्रदान करने वाला इस तरह का आहार होता है और यही आहार शरीर तथा मन के बल का आधार होता है। जब इस प्रकार के आहार का सेवन हो, तब फिर रोग कहाँ से प्रकट हो सकते हैं? जब ऐसा आहार प्राप्त होता है, तब यह अच्छी तरह जान लेना चाहिये कि उसके शरीर का आरोग्य भोगने का भाग्योदय हो आया है। मनुष्य इस प्रकार के आहार के कारण स्वयं भी सुख भोगता है और अन्यों को भी सुखी करता है। ऐसा आहार शरीर के बाह्याभ्यन्तर के लिये अत्यन्त उपकारक होता है। प्रसंगवश अब मैं यह भी बतलाता हूँ कि रजोगुणी मनुष्यों की अभिरुचि किस प्रकार के अन्न के प्रति होती है।[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (120-124)
  2. (125-138)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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