ज्ञानेश्वरी पृ. 652

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग


यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ॥4॥

जिसकी देह की रचना सात्त्विक श्रद्धा की होती है, उसका अनुराग प्रायः स्वर्ग-सुख की ओर ही होता है। वह समस्त विद्याएँ सीखता है, यज्ञ इत्यादि विधान करता है और सिर्फ यही नहीं, अपितु देवलोक में चला जाता है। हे वीरेश! जिनकी श्रद्धा राजस होती है, वे राक्षसों और पिशाचों की भक्ति करते हैं। और जिनकी श्रद्धा तामसी होती है, अब मैं उनके भी लक्षण बतलाता हूँ। जो जीव केवल पापपुंज ही होते हैं, जो अत्यन्त कर्कश और निष्ठुर होते हैं, जो प्राणियों की हत्या करके सन्ध्याकाल में श्मशान में जाकर भूतों और प्रेतों की पूजा करते हैं उन जीवों के बारे में यही जानना चाहिये कि वे तमोगुण का सार-तत्त्व निकालकर ही बनाये गये हैं। इस प्रकार के लोग तामसी श्रद्धा का मानो घर ही होते हैं। इस प्रकार इन तीन चिह्नों से युक्त ये त्रिविध श्रद्धाएँ संसार में दृष्टिगत होती हैं। कहने का आशय यह है कि हे सुविज्ञ! तुम भी अपने मन में एकमात्र सात्त्विक श्रद्धा ही रखो और शेष दोनों जो घातक श्रद्धाएँ हैं, उन्हें एकदम से त्याग दो।

हे धनंजय! यह सात्त्विक श्रद्धा जिसकी संरक्षक हो जाती है, उसके लिये कैवल्य कोई हौवा नहीं होता अर्थात् मोक्ष उसके लिये कठिन नहीं होता, फिर चाहे वह ब्रह्मसूत्र का अध्ययन न किया हो अथवा शास्त्रों में निपुण न हुआ हो अथवा उसे महासिद्धान्तों की उपलब्धि न हुई हो। जो बड़े लोग एकमात्र श्रुतियों तथा स्मृतियों के अर्थों के मूर्तिमान् अवतार होकर जगत् को सदाचरण का उदाहरण दिखलाते हैं, उनके आचरण का ढंग देखकर तथा उसी के अनुरोध से वे लोग भी सात्त्विक श्रद्धा से आचरण करते हैं और इसीलिये शास्त्राध्ययन से मिलने वाला फल उन्हें सहज में ही प्राप्त हो जाता है। एक व्यक्ति तो अत्यधिक प्रयत्न करके दीपक प्रज्वलित करता है तथा दूसरा व्यक्ति अनायास ही उस दीपक के सहयोग से अपना दीपक भी प्रज्वलित कर लेता है। पर क्या उस दूसरे दीपक प्रज्वलित करने वाले को प्रकाश नहीं मिलता? अथवा कुछ कम मिलता है? एक व्यक्ति अपार सम्पत्ति खर्च करके विशाल मकान तैयार करता है, पर जो अन्य लोग उस मकान में रहते हैं, क्या उन्हें उस मकान का वह सुख भोगने को प्राप्त नहीं होता? क्या सरोवर उसी की प्यास का शमन करता है, जो उसका निर्माण कराता है और दूसरों की प्यास का शमन नहीं करता? अथवा क्या घर में भोजन सिर्फ उसी को मिलना चाहिये जो उसे पकाता हो; और शेष अन्य लोगों को नहीं मिलना चाहिये? इस विषय की बहुत-सी बातें हो चुकीं। मैं सिर्फ यही कहता हूँ कि गौतम ऋषि अत्यधिक प्रयत्न करके गंगा (गोदावरी) नदी को इस पृथ्वी पर लाये थे; पर क्या कभी किसी को यह महसूस हुआ है कि वह सिर्फ गौतम के लिये ही पवित्र गंगा के रूप में सिद्ध हुई थीं और अन्यों के लिये वह सिर्फ साधारण नाले के सदृश सिद्ध हुई हों? अत: जो व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार शास्त्रों का मार्ग जानता है, उसका अनुकरण जो कोई श्रद्धापूर्वक करता है, वह यदि मूढ़ भी हो तो भी तर जाता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (76-92)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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