श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
उस अर्जुन ने कहा-“हे तमाल-पत्र-श्याम प्रभो! यद्यपि आप इन्द्रियग्राह्य साक्षात् ब्रह्म ही हैं, तो भी आपका वचन मुझे संशयात्मक ही जान पड़ता है। आपने यह क्यों कहा है कि प्राणियों के लिये मोक्ष का साधन करने वाला शास्त्रों के अलावा अन्य कोई चीज नहीं है? शास्त्राभ्यास करने के लिये उचित स्थान, काल और अध्यापक की आवश्यकता होती है; पर जिसे इन सब चीजों की उपलब्धि न हो और शास्त्राभ्यास करने के लिये जो नाना प्रकार की सामग्री अपेक्षित होती है, उसकी भी जिसके पास कमी हो, साथ ही जिसे पूर्वकाल के पुण्य का बल भी प्राप्त न हो और इसीलिये जिसमें बुद्धि, बल भी न हो, उसके किये शास्त्राभ्यास या शास्त्राध्ययन हो चुकाः और इस प्रकार जो शास्त्राध्ययन न कर सकते हों और यहाँ तक कि शास्त्रों के साथ जिनका कुछ भी सम्पर्क न हो और इसीलिये जिन्होंने शास्त्रीय ऊहापोह करने का सारा बवाल ही त्याग दिया हो, पर फिर भी जिन लोगों के मन में इस बात की लालसा होती है कि हम भी उन्हीं लोगों की भाँति हों जो शास्त्रों में बताये गये कर्मों का अनुष्ठान करके वास्तव में पारलौकिक सुख सम्पादित करते हैं तथा इसी विचार से जो शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान करने वाले व्यक्तियों का अनुकरण करने की कोशिश करते हों और हे उदार भगवन्! किसी सुयोग्य लेखक के लिखे हुए अक्षरों के नीचे जैसे कोई बालक उन अक्षरों को देख-देखकर तदनुरूप स्वयं भी वही अक्षर लिखता है अथवा किसी आधार या मार्गदर्शक को अपने सम्मुख रखकर जैसे कोई अन्धा अथवा लँगड़ा उसके पीछे-पीछे चलता है, वैसे ही जो उन्हीं लोगों के सदृश आचरण करते हों, जो सम्पूर्ण शास्त्रों में पारंगत हों और जो अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ऐसे ही लोगों के मार्ग पर उनका अनुकरण करते हुए चलते हों और फिर जो बहुत ही भावुकता तथा श्रद्धापूर्वक शिव इत्यादि देवताओं की पूजा, भूमि इत्यादि के दान, अग्निहोत्र इत्यादि यज्ञ-विधियाँ तथा इसी प्रकार के अन्यान्य कर्मों का आचरण करते हों, हे भगवन्! आप मुझे यह बतलावें कि उन व्यक्तियों को सत्त्व, रज और तम में से कौन-सी गति प्राप्त होती है।” इस पर जो वैकुण्ठाधिपति हैं, जो निगमरूपी पद्मपराग हैं, जिनकी छाया से इस सारे जगत का जीवन चलता है और जो काल स्वभावतः बलवान् अलौकिक तथा भव्य है और जो मेघ अगम्य तथा आनन्दमय है, उस काल और मेघ को भी जिस सामर्थ्य से महत्त्व मिलता है, वह सामर्थ्य जिसमें कूट-कूटकर भरी हुई है, वे भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही कहने लगे।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (34-48)
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