ज्ञानेश्वरी पृ. 648

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग

अत: अब मैं गीतार्थ स्पष्ट करने के लिये प्रवृत्त होता हूँ। षोडश अध्याय के अन्तिम श्लोक में श्रीकृष्णदेव ने इस सिद्धान्त का निर्णय किया है कि हे पार्थ! जिस समय यह निश्चय करने की आवश्यकता हो कि करणीय और अकरणीय काम कौन-सा है, तब तुम केवल शास्त्रों को ही प्रमाण मानो। इस पर अर्जुन के मन में यह प्रश्न उठा कि ऐसा क्यों है कि बिना शास्त्रों की सहायता के कर्म का निर्णय ही न हो? तक्षक के फण पर पैर रखकर उसकी मणि कैसे प्राप्त की जाय और सिंह की नासिका के बाल कैसे उखाड़े जायँ? और तब यह कहा जाता है कि तक्षक की वही मणि सिंह की नासिका वाले बाल में गूँथकर तथा उसकी कण्ठी बनाकर गले में धारण की जाय। पर यदि मनुष्य ऐसा न कर सके तो क्या वह अपना गला यों ही नंगा रखे?

ठीक वैसे ही मतभेद का झमेला खड़ा करने वाले भिन्न-भिन्न शास्त्रों की गठरी भला कैसे और कौन बाँधे? और फिर उनकी एकवाक्यता वाला फल ही कैसे प्राप्त किया जा सकता हैॽ यदि यह भी मान लिया जाय कि किसी प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों का तालमेल बैठाकर किसी कार्य के विषय में कोई निर्णय कर भी लिया, तो भी उसके आचरण के लिये यथेष्ट समय भी किसी के पास है? इस जीव को इतना अधिक प्रसार भला कैसे अच्छा लगेगा? और फिर सब लोग इस प्रकार का उपाय भला कैसे कर सकते हैं, जिससे शास्त्र, अर्थ, देश तथा काल-सबका एक ही कार्य में उचित योग हो सके? वही कारण है कि इस शास्त्रोक्त प्रकरण का साधन प्रायः कठिन ही है। फिर उन लोगों के लिये कौन-सा मार्ग खुला रहता है, जो लोग अज्ञानी हों, पर साथ ही मोक्ष के अभिलाषी भी हों? बस, यही प्रश्न अर्जुन के मन में उठ रहा है और इसी का विवेचन इस सत्रहवें अध्याय में किया गया है। जो समस्त विषयों से विरक्त है, जो सम्पूर्ण कलाओं में निपुण है, जो स्वयं कृष्ण के लिये भी अर्जुन के रूप में दूसरा कृष्ण (आकर्षण करने वाला) ही है, जो शौर्य का अधिष्ठान है, जो सोमवंश का श्रृंगार है, सुख इत्यादि का उपभोग जिसके लिये सिर्फ क्रीड़ा है, जो प्रज्ञा का प्रियोत्तम है तथा ब्रह्मविद्या विश्राम स्थल है, जो श्रीकृष्ण के सन्निकट रहने वाला मानो मनोधर्म ही है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (1-33)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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