श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
पर जो लोग आपको अपने से पृथक् समझते हैं और जो आपको अपनी आँखों के समक्ष रखकर आपको पाने के लिये अनेक प्रकार के योग इत्यादि मार्गों पर दौ़ड़ लगाते हैं, आप उनके बहुत पीछे ही रहते हैं। जो लोग आसन लगाकर मन में आपका ध्यान करते हैं, उनके ग्राम अथवा नगर में भी आप नहीं रहते। पर जो लोग आत्मैक्य के भाव से ध्यान को भी भुला बैठते हैं, उन पर अवश्य ही आपका परम प्रेम बरसता है। जिन्हें यह ज्ञान नहीं है कि आप स्वयं सिद्ध हैं और एकमात्र अपनी सर्वज्ञता का ही अभिमान करते हैं, उनकी बातों का श्रवण भला आप कहाँ से कर सकते हैं? कारण कि जो वेद इतना अधिक वक्तृत्व करते हैं, उनकी तरफ आपकी श्रवणेन्द्रियाँ ही नहीं होतीं। आपका मौन नाम पड़ने का कारण आपकी जन्मराशि ही है, तो फिर आपकी स्तुति करने का क्यों साहस किया जाय? आँखों को जो कुछ दिखलायी देता है, वह सब यदि मायाजन्य ही है, तो फिर आपकी भक्ति हेतु साधन ही कहाँ अवशिष्ट रहता है? देवरूप में आपकी कल्पना करके आपकी सेवा करने का भाव मन में जगता है, पर यदि आप में तथा अपने में भेदभाव माना जाय, तो मानो आत्मद्रोह ही होता है। अत: अब आपके सम्बन्ध में कुछ न कहना ही समीचीन है। आपके अद्वितीय स्वरूप की प्राप्ति तभी होती है, जब समस्त भेदभाव पूर्णरूप से त्याग दिया जाता है। हे आराध्य मूर्ति! आपका यह रहस्य अब ठीक तरह मेरी समझ में आ गया है। अत: जैसे बिना किसी भेदभाव के अन्न-रस के द्वारा लवण स्वीकार किया जाता है, ठीक वैसे ही आप भी मेरा नमन स्वीकार करें। इससे अधिक अब मैं और क्या कहूँ। जैसे रिक्त कुम्भ समुद्र में डाला जाय और फिर ऊपर निकाला जाय, तब वह जैसे जल से लबालब भरा हुआ निकलता है अथवा दीपक के संसर्ग से जैसे बत्ती भी दीपक का रूप धारण कर लेती है, ठीक वैसे ही हे श्रीनिवृत्तिनाथजी महराज! मैं भी आपको नमन करके परिपूर्ण हो गया हूँ। |
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