ज्ञानेश्वरी पृ. 643

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर: ।
आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥22॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि तभी हो सकती है, जब जीव इन सब दोषों को एकदम से परित्याग कर दे। जब तक ये त्रिदोष जीव में जाग्रत् रहते हैं, तब तक कल्याण-प्राप्ति की वार्ता हमारे कान नहीं सुन सकते, उस समय यही सब बातें श्रीदेव ने कही थीं। तदनन्तर वे फिर कहते हैं-“जिसके चित्त में आत्मप्रेम हो अथवा आत्मनाश का भय सता रहा हो, उसे इस राह पर कभी नहीं चलना चाहिये। उसे अनवरत जाग्रत् रहना चाहिये। जैसे कोई अपने पेट के साथ पत्थर बाँधकर केवल अपनी भुजाओं के बल से ही समुद्र को तैरकर पार करना चाहता हो अथवा जीवन धारण करने के लिये कालकूट पीना चाहता हो, वैसे ही वह मनुष्य भी होता है, जो काम, क्रोध और लोभ-इन त्रिदोषों को अपने साथ रखकर अपना कार्य सिद्ध करना चाहता है। इसलिये इन सबका नामोनिशान तक मिटा देना चाहिये। जब यह तीन नाड़ियों वाली जंजीर टूटती है, तभी जीव आत्मकल्याण के पथ पर सुखपूर्वक जा सकता है। जैसे कफ, पित्त और वात-इन त्रिदोषों से मुक्त देह अथवा चुगली, चोरी और छिनाल-इन त्रिकुटों से अलिप्त रहने वाला नगर अथवा आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक-इन त्रितापों से मुक्त अन्तःकरण सुखी होता है, वैसे ही काम, क्रोध और लोभ-इन तीनों से मुक्त जीव भी संसार में सुखी होता है और वह मोक्ष-पथ पर चलकर साधुसन्तों की संगति प्राप्त करता है। फिर सत्संग और सत-शास्त्रों की सहायता से वह जीवन और मृत्यु के पथरीले जंगल से बाहर निकल जाता है। फिर उस समय गुरु-कृपा से उसे वह नगर प्राप्त होता है, जिसमें निरन्तर आत्मानन्द का ही वर्चस्व रहता है। वहाँ उस आत्मस्थितिरूपी माता के गले लगता है, जो प्रियजनों की पराकाष्ठा है और उस माता के मिलते ही सांसारिक कोलाहल बन्द हो जाता है। वही मनुष्य इस प्रकार के लाभ का स्वामी होता है, जो काम, क्रोध और लोभ को भगाकर स्वयं स्वतन्त्र होकर खड़ा होता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (433-444)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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