ज्ञानेश्वरी पृ. 642

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम:क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥21॥

काम, क्रोध और लोभ-इन तीनों की प्रबलता जहाँ विद्यमान हो, तो यह समझना चाहिये कि वहाँ अशुभ की ही उपज होती है। हे धनंजय! समस्त दुःखों ने तीनों का एक मार्ग बना रखा है, जिससे चलकर जो चाहे, वही दुःखों के दर्शन कर सकता है-वे दुःख प्राप्त कर सकता है अथवा पाप करने वालों को नरक-भोग में पहुँचाने के लिये ही पातकों की यह एक विशाल सभा स्थापित हुई है। जब तक हृदय में इन तीनों का उदय नहीं होता, तब तक रौरव नरक का वर्णन पुराणों तक ही सीमित रहता है, पर ज्यों ही इन तीनों दोषों का संचार होता है, त्यों ही समस्त अपाय मनुष्य का पीछा करने लगते हैं और कष्ट मानों एकदम से सस्ते हो जाते हैं। लोग जिसे हानि नाम से पुकारते हैं, वास्तव में वह हानि नहीं है। ये तीनों ही वास्तविक हानि के रूप में हैं। हे सुभट (अर्जुन)! अधिक क्या कहूँ। नरकों में जो सबसे निकृष्ट नरक है, उसका प्रवेश द्वार इन्हीं तीनों दोषों का त्रिकूट है। इस त्रिशंकु यानी तीनों मुख वाले प्रवेश द्वार पर जो जीव खड़ा रहे, वही नरकरूपी नगरी के मुख्य सभागृह में प्रवेश करता है। अत: हे किरीटी! काम, क्रोध और लोभ के इस त्रिकूट का सभी अवसरों पर पूर्णतया त्याग ही करना चाहिये।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (425-432)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः