श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
काम, क्रोध और लोभ-इन तीनों की प्रबलता जहाँ विद्यमान हो, तो यह समझना चाहिये कि वहाँ अशुभ की ही उपज होती है। हे धनंजय! समस्त दुःखों ने तीनों का एक मार्ग बना रखा है, जिससे चलकर जो चाहे, वही दुःखों के दर्शन कर सकता है-वे दुःख प्राप्त कर सकता है अथवा पाप करने वालों को नरक-भोग में पहुँचाने के लिये ही पातकों की यह एक विशाल सभा स्थापित हुई है। जब तक हृदय में इन तीनों का उदय नहीं होता, तब तक रौरव नरक का वर्णन पुराणों तक ही सीमित रहता है, पर ज्यों ही इन तीनों दोषों का संचार होता है, त्यों ही समस्त अपाय मनुष्य का पीछा करने लगते हैं और कष्ट मानों एकदम से सस्ते हो जाते हैं। लोग जिसे हानि नाम से पुकारते हैं, वास्तव में वह हानि नहीं है। ये तीनों ही वास्तविक हानि के रूप में हैं। हे सुभट (अर्जुन)! अधिक क्या कहूँ। नरकों में जो सबसे निकृष्ट नरक है, उसका प्रवेश द्वार इन्हीं तीनों दोषों का त्रिकूट है। इस त्रिशंकु यानी तीनों मुख वाले प्रवेश द्वार पर जो जीव खड़ा रहे, वही नरकरूपी नगरी के मुख्य सभागृह में प्रवेश करता है। अत: हे किरीटी! काम, क्रोध और लोभ के इस त्रिकूट का सभी अवसरों पर पूर्णतया त्याग ही करना चाहिये।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (425-432)
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