ज्ञानेश्वरी पृ. 641

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥20॥

ऐसे लोग इतनी दुःखमय स्थिति तक केवल इस आसुरी सम्पत्ति के कारण ही पहुँचते हैं। तदनन्तर व्याघ्र इत्यादि की तामस योनियों में भी विश्राम हेतु देह का जो थोड़ा-सा आधार रहता है, उनका वह आधार भी मैं उनसे छीन लेता हूँ और तब वे लोग शुद्ध तमका ही रूप हो जाते हैं। वे ऐसे घोर तम हो जाते हैं कि यदि वे कालिख के साथ भी लग जायँ तो वह और भी अधिक काली हो जाय। फिर वे ऐसे घृणित हो जाते हैं कि पाप को भी उनसे घृणा होने लगती है, नरक भी उनसे भय खाता है, उनके कष्ट को देखकर स्वयं कष्ट भी मूर्च्छित हो जाता है, उनके सम्बन्ध से मल भी मलीन हो जाता है, ताप भी उनसे तप्त हो जाता है, महाभय भी उनसे थर-थर काँपने लगता है, अमंगल भी उन्हें अमंगल का रूप समझता है तथा छुआछूत भी उनके संसर्ग-दोष से डरती है। इस प्रकार ये सारे संसार के अधमों से भी बढ़कर अधम आसुरी लोग भिन्न-भिन्न तामस योनियों में प्रवेश कर अन्त में हे धनंजय! साक्षात् तम ही बन जाते हैं। इन मूर्खों ने भी कैसे नरकों का साधन किया है! इसका वर्णन करने में वाणी भी विकल हो जाती है तथा मन भयभीत होकर कदम पीछे हटा लेता है। यह बात समझ में नहीं आती कि वे ऐसी आसुरी सम्पत्ति का उपार्जन क्यों करते हैं, जिससे ऐसी भयंकर अधोगति प्राप्त होती है। इसीलिये हे धनुर्धर! तुम कभी आसुरी सम्पत्ति के राह पर भी न चलो। जिस जगह पर आसुरी सम्पत्ति वाले रहते हों तथा उपर्युक्त दम्भ इत्यादि षट्दोष दृष्टिगत होते हों, उस जगह पर अपने कदम न रखना ही समीचीन है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (414-424)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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