ज्ञानेश्वरी पृ. 640

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥19॥

अब यह सुनो कि जो लोग सभी तरह से मेरे साथ शत्रुता करते हैं, उनकी मैं किस प्रकार व्यवस्था करता हूँ। ये लोग मनुष्य-शरीर के धागे का आश्रय लेकर सारे संसार के संग लापरवाही के साथ व्यवहार करते हैं, इसीलिये मैं उनकी ऐसी गति करता हूँ कि क्लेशरूपी गाँव का सारा कचड़ा जहाँ इकट्ठा होता है तथा संसाररूपी नगर का सारा दूषित जल जहाँ बहकर जाता है, उसी जगह की तामस योनियों में मैं इन मूर्खों को रखता हूँ। फिर जिस जगह पर खाने के लिये तृण तक नहीं उगता, उस उजाड़ वन में मैं उन्हें बाघ अथवा बिच्छू की गति प्रदान करता हूँ। उस समय भूख से व्यथित होकर वे लोग स्वयं अपना ही मांस भक्षण करते रहते हैं तथा बार-बार मृत्यु को प्राप्त होकर फिर वहीं जन्म धारण करते रहते हैं अथवा मैं उन्हें उस सर्प की योनि में उत्पन्न करता हूँ, जो स्वयं अपने ही विषय से अपने ही शरीर को जलाता है और उन्हें बिलों में बन्द कर रखता हूँ। साँस लेकर पुनः उसे बाहर निकालने में जितना समय लगता है, उतना समय भी मैं कभी इन दुष्टों को विश्राम हेतु नहीं देता और उतने अनन्त काल तक मैं इन क्लेशों से उन्हें छुटकारा नहीं देता, जिसकी तुलना में कोटि कल्पों की संख्या भी अत्यल्प ही होती है। फिर इन आसुरी लोगों को अन्त में जहाँ जाना पड़ता है, उसका यह पहला ही पड़ाव होता है। फिर भला इस पड़ाव से आगे बढ़ने पर उन्हें इनसे भी बढ़कर भीषण दुःख क्यों न झेलने पड़ेंगे।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (405-413)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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